जब बूंदों की बात चली है, तो इन बूंदों में हमें गोरखनाथ, कबीर, कालिदास और न जाने कौन कौन स्मरण हो आते हैं। गोरखनाथ ने ' कूट ' भाषा में कहा है -
" साधु बन जडि जाऊं तो शुध्या व्यापै
नगरी जाऊं तो माया
भरि भरि खाऊं तो बिन्द व्यापै
त्यों सीझती जल बिन्द की काया "
और कबीरदास ने कहा है -
" बूँद समानी समद में, तो कत हेरि जाय "
इसके अलावा... उर्दू का ये बहुत जाना माना शेर याद आ रहा है -
" मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है "
इन सबसे ऊपर हमें कवि कुलगुरु महाकवि कालीदास के प्रसिद्ध मेघदूत के प्रथम श्लोक "आषाढस प्रथम दिवसे "की याद आती है।
आधुनिक सन्दर्भ में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म ' दो बूँद पानी ', जिसने पानी के महत्व को बड़ी शिद्दत से रेखांकित कराया है, याद आती है। इसके साथ ही चित्रपति वी. शांताराम की ' बूँद जो बन गयी मोती ' और शशि कपूर द्वारा निर्मित फिल्म ' जूनून ' का वह लोकगीत आज बरबस अपनी पूरी मिठास और श्रृंगारिकता के साथ हमारे मन मस्तिष्क में उमड़ घुमड़ रहा है -
" घिर आई काली घटा मतवाली
सावन की आई बहार रे ..."
आज जब हम बूंदों से गुफ्तगू करने चले हैं तो और भी न जाने क्या क्या याद आ रहा है। आइये आप भी हमारे साथ कीजिये इन बूंदों से बातें ...
- दिनेश द्विवेदी .
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बरखा
खेतों पर गिरती हो
जब बूंदों की शकल में
तो मंदिर से लौटी
माँ के माथे लगे
उस सिंदूरी बिंदी की तरह
लगती हो
जैसे चूम रही हो
मिटटी को
दे रही हो आशीष
पूरा फ़ल देना
इनकी मेहनत का
कभी
झिरमिरा कर
तुम बरस जाती हो
आँगन में
शगुन के गीतों की तरह
अपनी ढोलक में
अपने सुर लगाते हुए
धूप में बरसती हो
तो 'पी' की याद दिलाती हो
छत पर सूखते कपड़ों को बटोरते
उनकी वो बरजोरी
जब समेट लिए थे कुछ पल
और बिना तुमसे पूछे
संजो लिए थे मन में
कभी सारे आंसू
समेट लेती हो
सखी बन कर
चलते चलते दे जाती हो
ऊन के बण्डल
जैसी आशाएं
सपने बुनने को
कभी रीते हाथ
नहीं आयी तुम
और बिना दिए
कभी गयी नही
ओ बारिश की बूंदों
जाते जाते
छोड़ जाती हो नमी
और अपनी महक
हिना की तरह ...
- राजलक्ष्मी शर्मा .
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बूँद से दिल की बात .
प्रिय बूँद
तुम आओगी क्या इस बार भी ?
पिछली बार जब तुम आयीं थीं ...
अपने साथ उसे भी लायी थीं .
भिगो गयी थीं तुम
दोनों के तन मन
लेकिन ...
तुम्हारे जाने के साथ ही जैसे
पड़ने लगीं सूरज की
जलने वाली किरणें और
जाने क्यूँ
सब नमी जो तुम साथ लायीं थीं
वाष्पित हो गयी .
सब सूख गया ,
वो भी चला गया .
देखो
इस बार भी जब तुम आना
उसे भी साथ लाना
फिर कभी न जाने के लिए ...
बनी रहना मेरे साथ यूँ ही
ताकि बना रहे वो भी मेरे साथ
और बनी रहे वो नमी भी ...
जी उठूँ मैं
और पल्लवित भी हो जाऊं
भर जाएँ शुष्क हो चुकी मेरी दरारें,
बनी रहना तुम यहीं
कि जब जाऊं अनंत यात्रा पर
तो एकदम हरी भरी सी
उसकी ही बाहों में ...
- सुनीता सनाढ्य पाण्डेय .
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बूंदों से बातें!
मुसलाधार बारिश हो, तो-
बूंदें दिखाई नहीं देतीं,
पर आद्र कर जाता है
बरसता पानी!
मखमली घास पर
बिछ जातीं हैं स्नेहिल बूंदें,
बन कर
कोई याद पुरानी!
बूंदों में प्रतिविम्बित सतरंगी स्वप्न,
हर एक क्षण एक नया जन्म,
हर एक पल की
अपनी एक विरल कहानी!
झम झम के संगीत में,
धरा पर झरते गीत में,
कितने राज़, कितनी खुशियाँ
अब तक हैं अनजानी!
रुको तनिक,
सुन लो बातें बूंदों की,
गुन लो बातें बूंदों की-
ये दुनिया...
है आनी जानी!
आत्मसात कर सारा गीत गगन का
उसमें जोड़ सुर कुछ अपने मन का
है रचनी हमें
कोई धुन सुहानी!
इसलिए,
हे बूंदों! तुम सब यूँ ही रहना धवल,
करते रहना जड़ों को सबल,
फिरना स्वच्छंद...
करते हुए मनमानी!
मस्ती में ही कुछ सीखेंगे,
तुमसे ही प्रेरित हो लिखेंगे,
जीवन की
हम नयी कहानी!
- अनुपमा पाठक .
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बारिशों के बाद .
आज कल घास गहरी हरी है
और जगह जगह
बेमतलब, बेमकसद
खिले जा रहे हैं सरफिरे फूल .
सब कुछ धुल गया है
बारिशों के बाद .
मोतियों सी चमकती हैं बूँदें .
घास पर चलो तो
भीग जाते हैं पाँव,
और ऊंचे देवदार के पेड़ों से
देर तक टपकता है
बूँद बूँद पानी .
सूरज छुट्टी पर है .
धुंध रहती है हर समय ...
कभी छंट भी जाती है,
तो डाल जाती है
नन्हा मुन्ना कोई बादल
पहाड़ों की गोद में .
पत्तों में छिपी
छोटी गीली चिड़िया
निकल आती है बाहर .
फड़फड़ा कर पंख
उडाती है बारीक बूँदें ...
सुखाती है खुद को .
मैं भी
बैठ जाती हूँ खिडकी पर
भूल कर
घर भर में फैले
गीले कपडे और सीलन की महक ...
और
साँसों में भर लेती हूँ
ठंडी, धुली, साफ़ हवा .
बस
कुछ दिन और
फिर बदल जायेगा ये मौसम
बारिशों के बाद .
- मीता .
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एक बूँद .
आज फिर एक बूँद टपकी है
और मैंने तेरे नाम की छतरी
पर उसे झेला है ,
आज फिर
तेरे होठों की बात चली है
और मैंने
आसमान से रौशनी को बटोरा है .
तेरे होंठ -
मेरे लिए एक कलम हैं
जो मेरी देह के वर्कों पर
यादों की शरबती लिखावट
डाल गए हैं ...
तेरे होंठ -
जो एक दवात हैं
जहाँ मेरी आँखों की
मयूरपंखी लेखनी
डूब - डूब जाती है
और दिल के सफ़ेद कागज़
पर मेघदूत लिख देती है ...
तेरे होंठ -
मन्मथ खिन्ने राधे के
स्पर्श से भीगे हुए हैं
और बार बार मेरे
मन की छत पर खड़ी
भावना की राधा को
कंपा कंपा देते हैं
हर रात मेरे प्यार का जयदेव
गीत गोविन्द की
एक और रचना करता है
और मैं
हर रात अपनी भावाकृति
तेरे होठों के नाम
समर्पित कर देता हूँ ...
तेरे होंठ -
जो एक पगडण्डी हैं
जिन पर मैं
भीड़ भरे राजमार्ग
से ऊब कर
भीड़ भरे राजमार्ग
से ऊब कर
चलना शुरू कर देता हूँ ...
तेरे होंठ -
वृन्दावनी कुंज हैं
जिसकी छाया में
मेरी मानसी राधा -
बैरन हो आई गर्मी से बचने
छिप जाया करती है ...
तेरे होंठ -
मेरे लिए चारों धाम हैं
जहाँ मन-यात्री मेरा
यात्रा किया करता है ...
तेरे होंठ -
गंगा का जल
जहाँ मेरी कल्मषता
धुल जाया करती है .
तेरे होंठ -
जहाँ मेरी यात्रा का
अंतिम निशान गड़ा है...
ऐसे तेरे होंठों के नाम
मेरे प्रेम का
एक शहदीला नमन .
- दिनेश द्विवेदी .
पुस्तक संग्रह ' स्पर्श ' से ली गयी रचना .
________________________________________________________________
नादाँ बूंदे .
पानियों के छत के नीचे
चलते चलते...
बारिश बात करती रही,
सारी राह
देह से फिसलती
हर बूंद ने वादा किया
अगले 'बरस '
जब वो बरसेंगी
मेरी खुशबु ले
जायेंगी दूर देश .
'बरस' कर पूछेंगी उस
अतीत के नम पन्ने से
क्या बारिश के पानी में
वो भी नमक चखता है ?
उन दो जोड़ी झुकी आँखों की
जो बिछड़ते समय
एक दूसरे को
देख भी नहीं पाई
वजह बारिश थी
या आंसू
कहना मुश्किल है .
मेरी तरह नादाँ बूंदे,
उन्हें पता नहीं
बूंदों का गिरना
बूंदे तय नही करती ...
हवाएं तय करती हैं
बूंदों को बस गिरना है
और नमी बिखेर कर बढ़ जाना है .
- राजलक्ष्मी शर्मा .
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नादाँ बूंदे .
पानियों के छत के नीचे
चलते चलते...
बारिश बात करती रही,
सारी राह
देह से फिसलती
हर बूंद ने वादा किया
अगले 'बरस '
जब वो बरसेंगी
मेरी खुशबु ले
जायेंगी दूर देश .
'बरस' कर पूछेंगी उस
अतीत के नम पन्ने से
क्या बारिश के पानी में
वो भी नमक चखता है ?
उन दो जोड़ी झुकी आँखों की
जो बिछड़ते समय
एक दूसरे को
देख भी नहीं पाई
वजह बारिश थी
या आंसू
कहना मुश्किल है .
मेरी तरह नादाँ बूंदे,
उन्हें पता नहीं
बूंदों का गिरना
बूंदे तय नही करती ...
हवाएं तय करती हैं
बूंदों को बस गिरना है
और नमी बिखेर कर बढ़ जाना है .
- राजलक्ष्मी शर्मा .
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उसकी बूंदो में भीगने की दबी हसरत है...
उसकी आँखो से अभी झाँकती शरारत है,
उसकी बूंदो में भीगने की दबी हसरत है,
कैसा भीगा है समा भीगता है घर कैसा,
उससे मैंने ये कहा भीग लो न डर कैसा।
उसने मुझसे ये कहा अब मैं ये करूँ कैसे,
अब वो हालात नहीं हैं मैं ये बदलूँ कैसे।
तुम समझदार हो ये जानते नहीं तुम क्या,
अब मैं बच्ची तो नहीं मानते नहीं तुम क्या,
कैसे बतलाऊँ तुम्हें कितनी चुभन होती है,
मुझ पे हर पल तो ज़माने की नज़र रहती है।
अपने सीने में दबी बात दबा जाऊँगी,
अब तो लगता है ये हसरत न मिटा पाऊँगी,
मैं ये बोला के अजब बात किया करती हो,
कत्ल प्यारे से ये जज़्बात किया करती हो।
बेखुदी छोड़के खुद को ज़रा बहाल करो,
तुम जो अपना न करो मेरा ही ख्याल करो।
मेरी दुनिया में मेरी रूह की तस्कीन हो तुम,
मेरे सीने में मेरा दिल हो मेरी जान हो तुम।
अबके बारिश को तुम आँगन में ज़रा आने दो,
पाक बूँदों को जरा जिस्म भिगो जाने दो।
मैं तुम्हारा हूँ तुम्हारे लिये खुशियाँ चाहूँ,
तुमको तसकीन जो मिल जाये मैं खुश हो जाऊँ।
- इमरान खान ' ताईर '
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नन्ही सी बूँद .
( वक़्त ... कभी किसी बरसात की तरह, रूह की मट्टी को नम कर के गुज़र जाता है ... और बूंदों की तरह यादें रख जाता है दिल की पत्तियों पर ... बस ज़रा सी देर ... और फिर ज़िन्दगी की धूप उन्हें भी सोख लेती है . गुज़रे वक़्त के नाम ये कविता )
गयी हुई बारिश की
दास्तान बाकी है ...
पत्ते पर टिकी हुई
नन्ही सी बूँद में
अभी भी जान बाकी है।
मुश्किल से रोके है
खुद को फिसलने से,
सूरज निकलेगा
तब कैसे फिर रोकेगी
अपने को जलने से ?
कुछ तो सोचती होगी
ज़िन्दगी के बारे में,
जिन के साथ उतरी थी
बादलों के दामन से...
उन सभी के बारे में।
पत्ते के कोने में
दो घडी चमकने दो,
वो देखो - सूरज की
लाल लाल आँखों ने
देख ही लिया उसको !
किरणों के छूने पर
हलकी सी थर्रायी ...
फिर क्या सोच कर जाने,
सात रंग में चमकी...
जाते जाते मुस्काई।
कुछ देर पत्ते में
बूँद की नमी रही...
सूरज जलता रहा...
नन्ही सी बूँद मगर
अब कहीं नहीं रही।
- मीता .
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इस बार 'Master's Category' में हम ले कर आये हैं 'महादेवी वर्मा' जी की ये सुपरिचित और अद्वितीय रचना-
मैं नीर भरी दु:ख की बदली !
मैं नीर भरी दु:ख की बदली!
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रन्दन में आहत विश्व हंसा,
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झरिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा,
श्वासों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली,
श्वासों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली,
मैं क्षितिज भॄकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली!
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना,
पद चिन्ह न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिहरन बन अंत खिली!
पद चिन्ह न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिहरन बन अंत खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
- महादेवी वर्मा .
___________________________________________________________________सरगम में आप के लिए प्रस्तुत है फिल्म 'जुनून' का ये मीठा लोकगीत 'आशा भोसले' जी की मधुर आवाज़ में -
2 टिप्पणियां:
An issue full of amazing creativity!
मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है ... Loved the editorial by Dinesh ji....
कभी रीते हाथ
नहीं आयी तुम
और बिना दिए
कभी गयी नही... rajlaxmi ji, wow!
Anupama ji .. मखमली घास पर
बिछ जातीं हैं स्नेहिल बूंदें,
बन कर
कोई याद पुरानी! beautiful lines!
आज फिर तेरे होठों की बात चली है ... aur kavi ko koi eershyaa nahin ! vaah! Dinesh ji.
सूरज छुट्टी पर है .
धुंध रहती है हर समय ...
कभी छंट भी जाती है,
तो डाल जाती है
नन्हा मुन्ना कोई बादल
पहाड़ों की गोद में . Meeta ji, an accurate and beautiful depiction of mansoon in the hills :)
उसकी बूंदो में भीगने की दबी हसरत है ... Imraan Khan, ye hasrat to ab sabhi ke dil mein chhupi hai.
गयी हुई बारिश की
दास्तान बाकी है ...
पत्ते पर टिकी हुई
नन्ही सी बूँद में
अभी भी जान बाकी है ... Isissue ki dastaan der tak baki rahegi Meeta ji.
A complete issue !
Raindrop melodies is just perfect with the inclusion of Mahadevi ji's wonderful poetry in the masterstroke!
Beautiful!
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