सोमवार, 20 अगस्त 2012

ख़ामोशी...!


अनमोल है
दिल के रिश्तों की
दुनिया,
यहाँ
मौन संवाद की
परंपरा है!

बादलों से
आच्छादित
है भावविभोर अम्बर,
और
सत्यनिष्ठ
सहनशील धरा है!

विडम्बना ही है-
अंतर अकालग्रस्त
और बाहर,
कृत्रिम संसाधनों से
सज्जित
सबकुछ हरा भरा है!

मानवीय क्रियाक्लापों के
कितने दूरगामी
हैं प्रभाव,
इससे अनभिज्ञ..
कलयुगी चेतना ने
कृत्रिमता को ही तो वरा है!

चलता ही रहता है शोरगुल
ख़ामोशी...
बोल न पाती है,
खो चुके हैं मनभावन शब्द
पर भावों की धरती
अब भी उर्वरा है!

अनमोल है
दिल के रिश्तों की
दुनिया,
यहाँ
मौन संवाद की
परंपरा है!

-अनुपमा पाठक

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