वो खिडकियों को बंद रखता है,
वो अपने घर से निकलता नहीं है।
वो डरता है
कि गर्म सड़कों पर
नंगे पैर, कोई नन्हा 'सच'
कहीं भीख मांगता न दिख जाये...
और अपनी आँखों का
जलता निशान दाग दे उस पर।
उसके जिस्म पर अब तक
कई निशान हैं ऐसे।
कोई उसूल खुले आम जिबह होता है ...
गर्म खून के छींटे हवा में उड़ते हैं...
और उसके घर की दीवारों से
कोई चीख टकराती है ...
तब वो
काँप कर एक नींद ओढ़ लेता है।
फिर उस नींद में बुनता है
चाँद तारों को
तितलियों को, बादलों को,
कोहसारों को ...
और कुहरे की
एक चादर लपेट लेता है।
पर क्यूंकि नींद है
ज़ाहिर है टूटती होगी ...
न चाहते हुए भी
आँखें खुलती होंगी...
किसी दरार से
घर में घुस आई चीखें
कानों के रास्ते
फिर खून में घुलती होंगी ...
तब वो शायद
उस बंद कमरे में
छटपटाता हो ...
सर पटकता हो ...
- मीता .
1 टिप्पणी:
बहुत ही मार्मिक रचना ...मन के कोने कोने तक पहुची बधाई
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