मंगलवार, 4 सितंबर 2012

कनुप्रिया - आम्र-बौर का गीत


यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में
बिलकुल जड़ और निस्पन्द हो जाती हूँ
इस का मर्म तुम समझते क्यों नहीं मेरे साँवरे!

तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्य्मयी लीला की
एकान्त संगिनी मैं
इन क्षणों में अकस्मात

तुम से पृथक नहीं हो जाती हूँ मेरे प्राण,


तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज
सिर्फ जिस्म की नहीं होती
मन की भी होती है

एक मधुर भय
एक अनजाना संशय,

एक आग्रह भरा गोपन,
एक निर्व्याख्या वेदना, उदासी,

जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी
अभिभूत कर लेती है।


भय, संशय, गोपन, उदासी
ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहेलियों की तरह

मुझे घेर लेती हैं,
और मैं कितना चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय

नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे
अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!


उस दिन तुम उस बौर लदे आम की
झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे

ढलते सूरज की उदास काँपती किरणें
तुम्हारे माथे मे मोरपंखों

से बेबस विदा माँगने लगीं -
मैं नहीं आयी

गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से
मुँह उठाये देखती रहीं और फिर
धीरे-धीरे नन्दगाँव की पगडण्डी पर
बिना तुम्हारे अपने-आप मुड़ गयीं -

मैं नहीं आयी
यमुना के घाट पर
मछुओं ने अपनी नावें बाँध दीं
और कन्धों पर पतवारें रख चले गये -

मैं नहीं आयी
तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी
और उदास, मौन, तुम आम्र-वृक्ष की जड़ों से टिक कर
बैठ गये थे

और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे
मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी


तुम अन्त में उठेएक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुम ने तोड़ा
और धीरे-धीरे चल दिये
अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे
पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँगलियाँ
क्या कर रही थीं!

वे उस आम्र मंजरी को चूर-चूर कर
श्यामल वनघासों में बिछी उस माँग-सी उजली पगडण्डी पर
बिखेर रही थीं .....

यह तुमने क्या किया प्रिय!
क्या अपने अनजाने में ही
उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी उजली पवित्र माँग
भर रहे थे साँवरे?


- धर्मवीर भारती .

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