मंगलवार, 4 सितंबर 2012

पगडंडियाँ!


कई रास्तों से गुज़र लेने के बाद,
फिर ढूँढ़े है मन-
वही पगडंडियाँ
जहां से शुरू किया था सफ़र...

वैसे तो लौट पाना नहीं होता है कभी,
पर लौटना गर मुमकिन भी हो-
तो भी संभव नहीं कि
पगडंडियाँ मिल जायेंगी यथावत...

समय के साथ लुप्त होते अरण्य में,
खो जाती है पगडण्डी भी
बिसर जाते हैं राही भी
विराम ले लेती है जीवन की कहानी भी

चल रहे हैं जिनपर आज,
उन पगडंडियों ने...
मुड़ने से पहले कहा अभी!
चल रही है राह,
जहां तक ले जाए...
तन्मयता से चलते जाओ सभी!

- अनुपमा पाठक .

1 टिप्पणी:

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये. मधुर भाव लिये भावुक करती रचना,,,,,,
बहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति...

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