शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

एक दिया फिर आज जलाओ .


मन को ऐसा क्यों लगता है ,
चाहे कितने दीप जला लें 
कहीं अँधेरा रह जाता है !

इतने रूप बदल कर फैला .
इतने रंग बना कर छाया .
इतनी आसानी से कब मिट पायेगा 
ये तम का साया !?

चाहे जितने दीप जला लो ,
धरती को तारों सी जगमग दे डालो ,
आकाश बना लो ;
जब तक दीपक नहीं जलेगा 
मन के उस गहरे गह्वर में ,
घोर अँधेरा नहीं छंटेगा .

तुम प्रकाश को ढूंढ रहे हो कहाँ ?
दियों की इस जगमग में !
ये प्रकाश तो क्षण भर का है 
और अँधेरा युगों युगों का !!

एक दिया फिर आज जलाओ 
मन के उस बिखरे आँगन में 
जिस में कब से धूल अटी है ,
एक रंगोली वहां सजाओ .

अब उसके प्रकाश में देखो 
सब कुछ कितना आलोकित है .
कोई भी तो नहीं पराया ,
तेरा मेरा नहीं कहीं कुछ ,
प्रेम सत्य है , और पूजित है .

एक दिया फिर आज जलाओ 
उस सूने घर के आँगन में ,
जिस में भूख रहा करती है ,
बीमारी है , बेकारी है ,
नाउम्मीदी बेचारी है .

पोंछो उन आँखों के आंसू ,
देखो ये उजास कैसी है ,
मुस्कानों में फ़ैल रही है ,
सूरज के प्रकाश जैसी है !

एक दिया फिर आज जलाओ वहां ,
जहाँ फिर कभी बुझे ना .
रहे हमेशा शीश उठाये ,
ज्योतिर्मय ,
जगमग करती लौ .
तम के आगे कभी झुके ना .

                                 मीता .

24 / 10 / 12 

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