बुधवार, 12 दिसंबर 2012

ग़ज़ल



कब तलक यूँही मुझे ख़ाक-ब-सर चाहती है ?
ऐ थकन , पूछ तो क्या राहगुज़र चाहती है ?


पहले कम पड़ती थी इक दश्त की वुसअत भी इसे
अब ये वहशत दर ओ दीवार में घर चाहती है .

कोई उम्मीद की सूरत नहीं बाक़ी दिल में
कोई उम्मीद मगर दिल में बसर चाहती है .

रोज़ मानूस मनाज़िर से लिपटती है मगर
इक तमाशा भी नया रोज़ नज़र चाहती है .

बोझ लगते हैं तबीअत को यह यकसां लम्हे
ऐसे माहौल से अब रूह मफर चाहती है .

घर से सूरज को निकलने की इजाज़त ही न हो
तीरगी अपनी ही शर्तों पे सेहर चाहती है .

;शाद ; ये फ़िक्र किसी तौर नहीं मानती है
हर सदफ में कोई नायाब गुहर चाहती है .

     - खुशबीर सिंह शाद .  

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