ये लफ्ज़ - लफ्ज़ तहरीरें हैं
या फिर कोई
शहद की बहती हुई
मीठी सी नहर I
कहाँ देख पाया मैं
कहाँ समझ पाया मैं
तेरी ज़बान को
इन लम्हों को मैं
झील कहूं या कँवल ?
लफ़्ज़ों की कभी न थमने वाली
धारा में
झिलमिलाता हुआ
हर लम्हा ए हयात
और कस्तूरी की तलाश
कहाँ समझ पाया मैं
बहते हुए
पसीने की ज़बान को
ज़बान की भी
अपनी अपनी
सरहदें बन गयीं
ये हर दिन
लकीरों को मिटा कर
आदमी के जंगल में
किसे तलाश करता हूँ मैं
रह रह कर
वह कौन है जो
धड़कता है
पिघलता है
मेरे वजूद में ??
देखा तो नहीं
मैं ने महसूस ज़रूर किया है
तुम एक कोने में खड़े
हमेशा मुस्कुराते हो
शब्दों का ये
मकड़ - जाल है
जूनून या फिर
आवारापन !???
- खुर्शीद हयात .
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