रविवार, 27 जनवरी 2013

क्वांरी .

मैंने जब तेरी सेज पर पैर रखा था
मैं एक नहीं थी - दो थी
एक समूची ब्याही
और एक समूची क्वांरी ...
तेरे भोग की खातिर -
मुझे उस क्वांरी को क़त्ल करना था .
मैंने क़त्ल किया था -
ये क़त्ल
जो कानूनन जायज़ होते हैं ,
सिर्फ उनकी जिल्लत
नाजायज़ होती है .
और मैंने उस जिल्लत का
ज़हर पिया था .
फिर सुबह के वक़्त -
एक खून में भीगे
अपने हाथ देखे थे ,
हाथ धोये थे -
बिलकुल उस तरह
ज्यों और गंदले अंग धोने थे ,
पर ज्यों ही मैं शीशे के सामने आई
वह सामने खड़ी थी
वही , जो अपनी तरफ से
मैंने रात क़त्ल की थी
ओ खुदाया !
क्या सेज का अँधेरा बहुत गाढ़ा था ?
मुझे किसे क़त्ल करना था
और किसे क़त्ल कर बैठी ...

- अमृता प्रीतम .

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