रविवार, 27 जनवरी 2013

अन्नदाता .

अन्नदाता !
मेरी ज़बान पर तुम्हारा नमक है
तुम्हारा नमक
मेरे बाप के होठों पर
और मेरे इस बुत में
मेरे बाप का खून है ...

मैं कैसे बोलूं ?
मेरे बोलने से पहले
तेरा अनाज बोल पड़ता है
कुछ एक बोल थे ,
पर हम अनाज के कीड़े !
और अनाज के भार तले
वे बोल दब कर रह गए ...

अन्नदाता ! मेरे माता पिता कामगर ,
कामगर की संतान कामगर
कामगर का काम सिर्फ काम
बाकी भी तो काम
यही चाम करता है ,
वह भी एक काम
यह भी एक काम .

अन्नदाता ! मैं मांस की गुडिया
खेल ले , खिला ले
लहू का प्याला , पी ले , पिला ले
तेरे सामने खड़ी हूँ
इस्तेमाल की चीज़ , कर लो इस्तेमाल !

उगी हूँ , पीसी हूँ , बेलन से बिली हूँ
आज गर्म तवे पर जैसे चाहो उलट लो !
मैं एक निवाले से बढ़कर कुछ नहीं ,
जैसे चाहो निगल लो !
तुम लावे से बढ़कर कुछ नहीं ,
जैसे चाहो पिघल लो !
लावे में लपेट लो !
क़दमों में खड़ी हूँ , बाहों में समेट लो !

अन्नदाता !
मेरी ज़बान और इनकार ?
यह कैसे हो सकता है !
हाँ ...प्यार ...
यह तेरे मतलब की शै नहीं .

    - अमृता प्रीतम .


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