मैं टुकड़ों में जीती हूँ ...
हर टुकड़े पे कोई नाम लिक्खा है ...
कभी - कभी सोचती हूँ मैं
मेरा अपना क्या है !
अजीब है ,
मेरा हरेक टुकड़ा
धड़कता , सांस लेता है
कि जैसे खुद में पूरा हो .
अजीब है ,
कि अपने सारे टुकड़े जोडती हूँ
तब कहीं जा के होती हूँ
मुकम्मल - मैं .
- मीता .
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