सोमवार, 14 जनवरी 2013

सदैव साथ .

आज तुम्हें फिर बादलों के बीच देखा मैंने ,
सफ़ेद बर्फ की चादर में लिपटे हुए देखा ,
आज फिर तुम्हें पेड़ों के पीछे कुछ गुनगुनाते हुए सुना .

ढलते सूरज के साथ चिढाते हुए , समंदर में क्यों दुबकी लगायी तुमने ?
सुबह नर्म किरणों से क्यों छेड़ा फिर मुझे ?
गीली बारिश के छींटे मार कर छुप गए तुम ?
और सोचा कि मैदान में लेट कर समय बर्बाद करते हुए नहीं पाउंगी तुम्हें ?

मेरी परछाईं से तो तुम्हारा पुराना बैर है .
रोज़ झगड़ते हुए , पूछते हुए सुनती हूँ कि 
कभी आगे , कभी पीछे क्यों चलती है वो 
अगर साया है तो साथ क्यों नहीं चलना आता उसे .

पतझड़ के हरे , लाल , पीले पत्तों में ,
बसंत की फूलों लदी क्यारियों में ,
हवा में बिखरी सुगंध में
दिए की लौ में
अंधियारे के गहरे काले में
हर जगह , हर पल तुम्हें पाती हूँ मैं .

तुम हो तो मुस्कुराती हूँ मैं .
तुम्हें हर जगह अब देख लेती हूँ .
उदासी में याद करती हूँ कि अकेली नहीं
परेशानी में सोच लेती हूँ कि
तुम्हारी परेशानी है ... मुझे क्या !
वरना क्यों चलते साथ-साथ
सदैव साथ .

- अनुराधा ठाकुर .

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...