आज तुम्हें फिर बादलों के बीच देखा मैंने ,
सफ़ेद बर्फ की चादर में लिपटे हुए देखा ,
आज फिर तुम्हें पेड़ों के पीछे कुछ गुनगुनाते हुए सुना .
ढलते सूरज के साथ चिढाते हुए , समंदर में क्यों दुबकी लगायी तुमने ?
सुबह नर्म किरणों से क्यों छेड़ा फिर मुझे ?
गीली बारिश के छींटे मार कर छुप गए तुम ?
और सोचा कि मैदान में लेट कर समय बर्बाद करते हुए नहीं पाउंगी तुम्हें ?
मेरी परछाईं से तो तुम्हारा पुराना बैर है .
रोज़ झगड़ते हुए , पूछते हुए सुनती हूँ कि
कभी आगे , कभी पीछे क्यों चलती है वो
अगर साया है तो साथ क्यों नहीं चलना आता उसे .
पतझड़ के हरे , लाल , पीले पत्तों में ,
बसंत की फूलों लदी क्यारियों में ,
हवा में बिखरी सुगंध में
दिए की लौ में
अंधियारे के गहरे काले में
हर जगह , हर पल तुम्हें पाती हूँ मैं .
तुम हो तो मुस्कुराती हूँ मैं .
तुम्हें हर जगह अब देख लेती हूँ .
उदासी में याद करती हूँ कि अकेली नहीं
परेशानी में सोच लेती हूँ कि
तुम्हारी परेशानी है ... मुझे क्या !
वरना क्यों चलते साथ-साथ
सदैव साथ .
- अनुराधा ठाकुर .
सफ़ेद बर्फ की चादर में लिपटे हुए देखा ,
आज फिर तुम्हें पेड़ों के पीछे कुछ गुनगुनाते हुए सुना .
ढलते सूरज के साथ चिढाते हुए , समंदर में क्यों दुबकी लगायी तुमने ?
सुबह नर्म किरणों से क्यों छेड़ा फिर मुझे ?
गीली बारिश के छींटे मार कर छुप गए तुम ?
और सोचा कि मैदान में लेट कर समय बर्बाद करते हुए नहीं पाउंगी तुम्हें ?
मेरी परछाईं से तो तुम्हारा पुराना बैर है .
रोज़ झगड़ते हुए , पूछते हुए सुनती हूँ कि
कभी आगे , कभी पीछे क्यों चलती है वो
अगर साया है तो साथ क्यों नहीं चलना आता उसे .
पतझड़ के हरे , लाल , पीले पत्तों में ,
बसंत की फूलों लदी क्यारियों में ,
हवा में बिखरी सुगंध में
दिए की लौ में
अंधियारे के गहरे काले में
हर जगह , हर पल तुम्हें पाती हूँ मैं .
तुम हो तो मुस्कुराती हूँ मैं .
तुम्हें हर जगह अब देख लेती हूँ .
उदासी में याद करती हूँ कि अकेली नहीं
परेशानी में सोच लेती हूँ कि
तुम्हारी परेशानी है ... मुझे क्या !
वरना क्यों चलते साथ-साथ
सदैव साथ .
- अनुराधा ठाकुर .
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