बुधवार, 30 जनवरी 2013

स्त्री - मैं / The Phenomenal Me .


कई वर्ष पहले 'वामा' के एक अंक में पढ़ी अमृता प्रीतम की ये पंक्तियाँ कभी भी मस्तिष्क में धुंधलायीं नहीं . हमेशा हौसला बंधाती रहीं , जूझने का साहस देती रहीं  -
" मैं कौन
एक औरत
आम जैसी
काली न गोरी
बांदी न रानी ....
जन्म के समय मेरे चेहरे पर
कोई भी नक्श न था
मैंने अपनी मिटटी खुद गूंध ली
खुद अपना चेहरा बनाया
मेरा चेहरा बहुत सुन्दर नहीं
पर ... नक्श पूरे हैं ."

चिरंतन के आज के अंक में हम इसी 'आम जैसी' औरत की बात कर रहे हैं , इसी 'आम जैसी' औरत की आँखों से उसकी दुनिया देख रहे हैं और समझने की कोशिश कर रहे हैं कि वो हमें क्या बताना चाह रही है ... खुद के बारे में , ज़िन्दगी के बारे में ... और उन सब के बारे में जो उसकी ज़िन्दगी में मायने भरते हैं .

" मैं अपने रूबरू हूँ , और कुछ हैरतज़दा हूँ मैं
न जाने अक्स हूँ , चेहरा हूँ , या फिर आइना हूँ मैं ."
आइये , खुशबीर सिंह शाद साब के इस शेर के साथ ये सफ़र शुरू करते हैं -
                                   
         - मीता .
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इनकी कलम से -

परिचय 

गृहस्थिन, हाउस वाइफ, होम मेकर
ये परिचय है मेरा

हमारी संख्या
दुनिया की प्रौढ़ जनसँख्या
की लगभग आधी होती है

हम भी इंसानों से
मिलती जुलती जाति के ही है
हमें अक्सर
सुनने को मिलता है
कुछ आता भी है तुम्हे?

हममे कोई गुण नहीं होता....
साहित्य/ संगीत/ कला

हमारी नालियों मे बहते संगीत को सुनना कभी
हम अपने सातों सुर धो डालते हैं
तुम्हारे पोतड़ों के साथ

हमारी रोटियों को
कभी ध्यान से देखा है?
इन्द्रधनुषी होती हैं वो
हम अपने सारे रंगों के सारे सपने
गूंथ डालते हैं उस आटें में
और फिर चकले और बेलन में
दबा दबा कर उन्हें गोल भी तो करना होता है

हमारी कलम जब कागजों से मिलती है
तो रचती है महाकाव्य
न कहा जाने वाला
न सुना जाने वाला
और न ही
गाया जाने वाला
मेहरी/ धोबी /किराने और दूध वाले के हिसाब

विद्वानों ने लिखा है
और आपने पढ़ा भी होगा
साहित्य संगीत कला विहीनः..........
यही तो है हमारा पूरा परिचय

और तुम सब भी तो यही कहते हो .

--------------------- और -------------------------------

सोचती हूँ कौन हूँ मैं ?

सोचती हूँ कौन हूँ मैं ?

एक सूखी सी नदी का घाट हूँ मैं
हर किनारे तोड़ कर बह चली
पुन्य सलिला का बिखरता पाट हूँ
रास हूँ मैं रंग हूँ
स्वार्थ अवसरवादिता पर
टिका सम्बन्ध हूँ

नहीं !!!
भोर की पहली किरण सा
ओस की मीठी छुवन सा
अनकहा सा अनसुना सा
मखमली अनुबंध हूँ मैं
 x-x-x-x-x-x-x

मैं नदी की धार हूँ
बह जाउंगी
भले ही हो नुकीले,
पाषाण तुम
बींधते
मेरा ह्रदय हो
जहाँ से जब छुंउंगी
हर किनारे
काट कर    
वर्तुलाकृति सरलता दे जाउंगी .

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मत तलाशो . 


तुम माँ मत
तलाशो मुझमे
कैसे बनूँ जगत माँ
नहीं है इतना धैर्य मुझ में .

और बहन सबकी
कैसे
तुम मैं कब ,कौन ,कहाँ
साथी,सहचर मीत
बन जाये .

प्रेयसी, प्रिया, प्रेमिका
वो भी सब की कैसे बन सकती हूँ
बनाना चाहती हूँ सिर्फ
जो मनचाहा हो .

पत्नी के रिश्ते मैं
पूर्ण आस्था के साथ
दृढ संकल्पित हूँ
युगों से .

सुनो
तुम सिर्फ पुरुष
और मैं सिर्फ स्त्री
बन इस दुनिया
को आधा-आधा
बाँट ले ...

फिर गूंथ लें
और दोबारा गढें .
कुछ तुम मुझमे रह जाओ
और कुछ मैं तुम में

फिर देखना
कोई रिश्ता नहीं ढूँढना
माँ, बहन, बेटी.........

तुम सिर्फ पुरुष
मैं सिर्फ स्त्री
सम्पूर्णता के साथ ............  

                                                            

- मृदुला शुक्ला .
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वह लड़की !

कई साल पहले
अपने छोटे से घर के
पिछवाडे को खोदते
वो जार-जार रोई थी ,
अपनी काली बिल्ली को दफनाते ,
कुछ साल बाद अपनी टूटी गुड़िया
के साथ बचपन की दोस्ती को भी ...
और चंद लम्हे अबोध बचपन के
उस काले शीशे के संदूक में .

आज भी ,रात को
उस करवट सोये आदमी
और बीच में सोये
लडके के ऊपर से
उड़ कर
पहुँच जाती है वह
उस मोड़ पे वापस
दफनाई कविता में
जहाँ सुलगती हैं यादें
बारिश में भीगे उसके बालों पर लिखी
किसी की पंक्तियाँ
सूरज के रंग में लिपटे एहसास
एक बेटी का अंश जिसको
नाम देने से पहले ही
सूली चढ़ा दिया गया

कल्पना की उड़ान
चौके के धुंए में गश खा गयी ...
अब ,
वह खुद नहीं पहचान पाती
कि किस मोड़ पे खोयी
वह लड़की !

- साधना .
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अपने लिए
तुम्हारे घर की
तिमंजिली खिडकी से
कूदती है और रोज भाग जाती है
छिली कोहनियों और फूटे घुटनों वाली औरत
ढूंढती है नीम का पेड़
और झूलती है
जीवन-जौरिया पर
ऊँची पेंगो का झूला
नीले आसमान में उड़ते
आवारा बादलों को
मारती है एक करारी लात
गूंजती फिरती है
सूफियो के राग सी
तुम्हारी पंचायतो के ऊसरों पर
खेलती है छुपम-छुपाई
हाँफती है थकती है
किसी खेत की मेंड़ पर बैठ
गंदले पानी से धोती है
अपने सिर माथे रखी
लाल स्याही की तरमीमें
फिर बड़े जतन से
चुन-चुन कर निकालती है
कलेजे की कब्रगाह में गड़ी
छिनाल की फाँसे
सहलाती है
तुम्हारे अँधेरे सीले भंडारगृह से निकली
जर्दायी देह को दिखाती है धूप
साँसों की भिंची मुट्ठियों में
भरती है हवा के कुछ घूँट
मुँहजोर सख्तजान है
फिर-फिर लौटती है
तुम्हारे घर
कुटती है पिटती है
मुस्काती है
और बोती है तुम्हारे ही आँगन में
अपने लिए
मंगलसूत्र के काले दाने
लगाती है तुम्हारे ही द्वार पर
अपने लिए
अयपन और टिकुली के दिठौने .....

- हेमा दीक्षित .
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एक और मैं .


मेरे अन्दर
एक और मैं हूँ .
तुम जिसे देखते हो
वो भी मैं हूँ ,
और मैं जिसे जानती हूँ
वो भी .

एक आवाज़ है ,
जिसे तुम सुन पाते हो ;
और एक आवाज़
बस मुझे ही सुनाई देती है .
मैं तुम्हें नहीं सुना सकती ,
तुम डर जाओगे .
वो चिड़ियों की तरह ,
झरनों की तरह ,
पत्तों की सरसराहट की तरह ,
गा सकती है कहीं भी ,
कभी भी .

एक चेहरा है
जो तुम्हें दिखता है ,
उम्र और थकान के निशानों के साथ .
और एक चेहरा
केवल मुझे दिखता है -
सुन्दर , शफ्फाक़ , पुरनूर .
एक सूरज जैसा चेहरा .
तुम देख मत लेना .
आँखें दुःख जायेंगी .

एक हंसी है
जो तुम सुनते हो ,
और बहुत सी बातें हैं
जो तुम करते हो मुझ से .
पर एक ख़ामोशी है
जिसे सुनती हूँ केवल मैं .
करती हूँ अक्सर उस से बातें .
तुम उसे सुन कर क्या करोगे ?
समझोगे ही नहीं .

ज़िन्दगी जीने के लिए
मैं जानती हूँ
मुझे हमेशा वही रहना पड़ेगा
जिसे तुम -
देख , सुन , छू , समझ सको .
वो ' एक और मैं '
मेरे अकेले के हिस्से आई है .

---------------- और -----------------

अजीब है .

मैं टुकड़ों में जीती हूँ ...
हर टुकड़े पे कोई नाम लिक्खा है ...
कभी - कभी सोचती हूँ मैं
मेरा अपना क्या है !

अजीब है ,
मेरा हरेक टुकड़ा
धड़कता , सांस लेता है
कि जैसे खुद में पूरा हो .

अजीब है ,
कि अपने सारे टुकड़े जोडती हूँ
तब कहीं जा के होती हूँ
मुकम्मल - मैं .

     - मीता .
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मेढ़ों पर .


ऊंची , टेढ़ी , मेढ़ों पर हँसते हंसाते , लुढ़कते लुढ़काते
बचपन में बहनों के संग समझी नहीं मैं उन मेढ़ों का होना ,
जीवन में घेरों का होना , सीमित असीमित होना , हदों का होना न होना
कहाँ सोचती थी मैं इन गहरी बातों के बारे में , विचारों के बारे में
गिरते पड़ते , खरोंचें खाते , मेढ़ों पर मस्ती में चलते रहे .

खुला सा , झिरझिरा सा रखा था , अपने को
रखा भी नहीं था , बनाया ही ऐसा था
कि सुराखों से सूरज रौशनी पहुंचाता रहा
हवाएं सौन्धाहट फैलाती रहीं
दुनिया भर का प्यार रिसता रहा , बहता रहा .

कैसे दीवारें उठीं , परिसीमायें बनीं
कैसे अगम्यता बढ़ी , संकीर्णता पैदा हुई
ज़ख्म उगे और भरे .... साथ ही भर गए सुराख
ऐसे कि सूरज की किरनें उलटे पैरों लौटने लगीं
हवाओं का रुख भी बदल गया , गीत अक्षुत रह गए , स्वप्न ओझल हो गए .

पर अन्दर कुछ था जो धड़कता रहा , मिटने के नाम से भड़कता रहा
ओजस जो उकसाता रहा , नूर जो चमकता रहा
जीने की ऐसी लालसा , जो मरने न दे .
खुद को जिसने देखने को मजबूर किया , खुद को पहचानने पर लाचार किया
समझाया कि बुरी नहीं सीमाएं , सीमा बांधनी प्रतिबंधक हो सकती हैं .
अस्तित्व स्थापित करना अरुचिकर नहीं ...
न ही बुरा है आत्मसम्मान की नींव बोना .

हदों से डरो भी मत , खीजो मत
और इतना भी सुराखदार न हो जाओ कि आंधियां उड़ा ले जायें
कुछ हदें तुम्हें परिभाषित करती हैं , निखारती हैं ...
किन्तु अब दोबारा उठो .... अपरिमित हो जाओ
खुला सा , बेमियादी सा बन जाओ ,
तुम्हारा स्वरुप ही असीमितता है .

और धीरे से दोबारा , ऊंची , टेढ़ी , मेढ़ों पर चलना शुरू कर दिया मैंने
खुलकर हँसना हँसाना , उभरना , पनपना
करुनानन्दित , आनंदित होना ... बातों में महसूसना मिठास भी सीख लिया है फिर से

मुझे तो अब फैलना ही है क्षितिज पर , मिल ही जाना होगा आकाशवृत में
कि मैं अनंत की रचना हूँ , आदि की परिकल्पना हूँ .

- अनुराधा ठाकुर .

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हमारे मेहमान -

मैं नहीं चाहती .


मैं नहीं चाहती वो अतिरिक्त सम्मान
जो एक स्त्री होने के नाते
तुम मुझे देते हो.

मैं नहीं चाहती वो अतिरिक्त अपमान
जो एक स्त्री होने के नाते
तुम मुझे देते हो.

मैं नहीं चाहती वो कुत्सित दृष्टि
जो एक स्त्री होने के नाते
तुम मुझ पर रखते हो.

मैं नहीं चाहती संदेह की वो गंध
जो अपने पूरे समर्पण के बावज़ूद
मैं तुममें पाती हूँ.

मैं नहीं चाहती वो क्रूर आक्रोश
जो तुम मुझ पर व्यक्त करते हो.

मैं नहीं चाहती प्यार का वह शिखर
जहा पे तुम मुझे
कभी भी नफ़रत के विषैले सागर में फैंकने को स्वतंत्र हो.

मैं नहीं चाहती तुम्हारा वो अनुरिक्त
जो अपनी होने के नाते तुम मुझ पर रखते हो
और पराया होते ही
एक अश्लील गाली में बदल जाती है.

मैं नहीं चाहती तुम्हारी वो जुगुप्सा
जो एक औरत को
औरतपन के निजी पैमाने से मापती है.

मैं चाहती हूँ तुम्हारे साथ एक सहज इंसानी सम्बन्ध.
मैं चाहती हूँ तुम्हारे साथ अपने सपनों की धरती में
एक साझा सपना रोपना.

मैं चाहती हूँ तुम्हारे साथ अपनी मंजिल के आकाश में
परिंदों की भांति एक साझा उड़ान.

मैं चाहती हूँ तुम्हारे साथ एक ऐसे भावतन्तु से जुड़ना
जो हमारे दिलों के दरवाजे खोल सके.

मैं चाहती हूँ तुमसे एक ऐसी पहचान
जो मेरे वज़ूद को मुझसे बेहतर समझ सके.

आओ,
हम कदम ब कदम
साथ-साथ चलते हुए
रेतीले सागर के तट पर अपने पदचिन्ह अंकित करें.....!

- प्रभा दीक्षित .

साभार- वर्तमान साहित्य (मार्च-अप्रैल २००६)
चन्द्रकला प्रजापति जी की फेसबुक वाल से .

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हिम्मत .
हिम्मत ने जाने कब मुझे देखा .... याद नहीं
पर बचपन से उसने मेरी ऊँगली थाम रखी है !
मेरी ऊँगली सूज गई है
दर्द है उसकी पकड़ से
प्रभु - मेरे रास्तों को समतल बना दो
हिम्मत को भी थोड़ी राहत दो .

- रश्मि प्रभा .
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तुम्हें आपत्ति है .

तुम कहते हो
मेरी सोच ग़लत है
चीज़ों और मुद्दों को
देखने का नज़रिया ठीक नहीं है मेरा

आपत्ति है तुम्हें
मेरे विरोध जताने के तरीके पर
तुम्हारा मानना है कि
इतनी ऊँची आवाज़ में बोलना
हम स्त्रियों को शोभा नहीं देता

धारणा है तुम्हारी कि
स्त्री होने की अपनी एक मर्यादा होती है
अपनी एक सीमा होती है स्त्रियों की
सहनशक्ति होनी चाहिए उसमें
मीठा बोलना चाहिए
लाख कडुवाहट के बावजूद

पर यह कैसे संभव है कि
हम तुम्हारे बने बनाए फ्रेम में जड़ जाएँ
ढल जाएँ मनमाफिक तुम्हारे सांचे में

कैसे संभव है कि
तुम्हारी तरह ही सोचें सब कुछ
देखें तुम्हारी ही नज़र से दुनिया
और उसके कारोबार को

तुम्हारी तरह ही बोलें
तुम्हारे बीच रहते ।
कैसे संभव है ?

मैंने तो चाहा था साथ चलना
मिल बैठकर साथ तुम्हारे
सोचना चाहती थी कुछ
करना चाहती थी कुछ नया
गढ़ना चाहती थी बस्ती का नया मानचित्र
एक योजना बनाना चाहती थी
जो योजना की तरह नहीं होती
पर अफ़सोस !
तुम मेरे साथ बैठकर
बस्ती के बारे में कम
और मेरे बारे में ज़्यादा सोचते रहे

बस्ती का मानचित्र गढ़ने की बजाय
गढ़ते रहे अपने भीतर मेरी तस्वीर
और बनाते रहे मुझ तक पहुँचने की योजनाएँ
हँसने की बात पर
जब हँसते खुलकर साथ तुम्हारे
तुम उसका ग़लत मतलब निकालते
बुनते रहे रात-रात भर सपने

और अपने आसपास के मुद्दे पर
लिखने की बजाय लिखते रहे मुझे रिझाने बाज़ारू शायरी
हम जब भी तुमसे देश-दुनिया पर
शिद्दत से बतियाना चाहे
तुम जल्दी से जल्दी नितांत निजी बातों की तरफ़
मोड़ देते रहे बातों का रुख
मुझे याद है!

मुझे याद है-
जब मैं तल्लीन होती किसी
योजना का प्रारूप बनाने में
या फिर तैयार करने में बस्ती का नक्शा
तुम्हारे भीतर बैठा आदमी
मेरे तन के भूगोल का अध्ययन करने लग जाता ।

अब तुम्हीं बताओ !
ऐसे में भला कैसे तुम्हारे संग-साथ बैठकर हँसू-बोलूँ ?
कैसे मिल-जुलकर
कुछ करने के बारे में सोचूँ?

भला, कैसे तुम्हारे बारे में अच्छा सोचकर
मीठा बतियाऊँ तुमसे?
करूँ कैसे नहीं विरोध
विरोध की पूरी गुंजाईश के बावजूद?

कैसे धीरे से रखूँ वह बात
जो धीरे रखने की मांग नहीं करती !

क्यू माँ के गर्भ से ही ऐसा पैदा हुई मैं ?

-------------------- और -------------------------


तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गाँठें खोल कर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास ..

घर प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी जमीन
के बारे में बता सकते हो तुम ... ?

अगर नहीं तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में ... ?


- निर्मला पुतुल .         

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गालियाँ .

ड्रामा कोर्स में
एक वाचाल वैश्या का अभिनय करते हुए
मंच पर मैं बके जा रही थी
माँ - बहन की गालियाँ

पूरी पृथ्वी एक रंगभूमि है
जिसमें पुरुष की यह आम भाषा है
बोलने के लिए जिसे स्त्री को
वैश्या का अभिनय करना पड़ता है .

------------------ और ----------------------

पुरुष होना चाहती हूँ .

पुरुष होना चाहती हूँ कविता में
पहनावे और केश से नहीं
कुछ अकड़ दिखा कर भी नहीं
यह तो आम हो गया है
स्त्रियों के बीच
और पुरुष भी करने लगे हैं
इस फैशन को पसंद

पुरुष होना चाहती हूँ
और उसकी कलम से
स्त्री की सुन्दरता रचना चाहती हूँ
कविता के आईने में मैं खड़ी हो कर
अपने होठों को चूस कर
उनको लहुलुहान करती
एक्स -रे मशीन जैसी आँखों को
अपनी देह पर टिकाती
अंतर्वस्त्रों में घुस कर
गुनाह में लिप्त हो जाती हूँ

मैं खुद से कॉफ़ी पीने का प्रस्ताव रखती हूँ
और कॉफ़ी को घूँट घूँट पीते हुए
जिस्म की मदिरा में लिपटती जाती हूँ .

मैं ख्वाब देखती हूँ
किसी ' आइटम ' में शामिल होने का
और जब थक जाती हूँ ख्वाबों से
क्रोध में बड़बडाती हूँ -
ल कर छोडूंगा साली को बिस्तर पर .

- सविता भार्गव .
    
सदानीरा से साभार 
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हम औरतें .

हम औरतें चिताओं को आग नहीं देतीं
क़ब्रों पर मिट्टी नहीं देतीं
हम औरतें मरे हुओं को भी
बहुत समय जीवित देखती हैं

सच तो ये है हम मौत को
लगभग झूठ मानती हैं
और बिछुड़ने का दुख हम
ख़ूब समझती हैं
और बिछुड़े हुओं को हम
खूब याद रखती हैं
वे लगभग सशरीर हमारी
दुनियाओं में चलते-फिरते हैं

हम जन्म देती हैं और इसको
कोई इतना बड़ा काम नहीं मानतीं
कि हमारी पूजा की जाए

ज़ाहिर है जीवन को लेकर हम
काफ़ी व्यस्त रहती हैं
और हमारा रोना-गाना
बस चलता ही रहता है

हम न तो मोक्ष की इच्छा कर पाती हैं
न बैरागी हो पाती हैं
हम नरक का द्वार कही जाती हैं

सारे ऋषि-मुनि, पंडित-ज्ञानी
साधु और संत नरक से डरते हैं

और हम नरक में जन्म देती हैं .

---------------------- और ----------------------

औरत का न्याय .


औरत कम से कम पशु की तरह
अपने बच्चे को प्यार करती है
उसकी रक्षा करती है

अगर आदमी छोड़ दे
बच्चा माँ के पास रहता है
अगर माँ छोड़ दे
बच्चा अकेला रहता है

औरत अपने बच्चे के लिए
बहुत कुछ चाहती है
और चतुर ग़ुलाम की तरह
मालिकों से उसे बचाती है
वह तिरिया-चरित्तर रचती है

जब कोई उम्मीद नहीं रहती
औरत तिरिया-चरित्तर छोड़कर
बच्चे की रक्षा करती है

वह चालाकी छोड़
न्याय की तलवार उठाती है

औरत के हाथ में न्याय
उसके बच्चे के लिए ज़रूरी
तमाम चीज़ों की गारन्टी है .

--------------- और -----------------

मुझे चाहिए .


मुझे संरक्षण नहीं चाहिए
न पिता का न भाई का न माँ का
जो संरक्षण देते हुए मुझे
कुएँ में धकेलते हैं और
मेरे रोने पर तसल्ली देने आते हैं
हवाला देते हैं अपने प्रेम का

मुझे राज्य का संरक्षण भी नहीं चाहिए
जो एक रंगारंग कार्यक्रम में
मुझे डालता है और
भ्रष्ट करता है

मुझे चाहिए एक संगठन
जिसके पास तसल्ली न हो
जो एक रास्ता हो
कठोर लेकिन सादा

जो सच्चाई की तरह खुलते हुए
मुझे खड़ा कर दे मेरे रू-ब-रू

जहाँ आराम न हो लेकिन
जोख़िम अपनी ओर खींचते हों लगातार

जहाँ नतीजे तुरन्त न मिलें
लेकिन संघर्ष छिड़ते हों लम्बे

एक लम्बा रास्ता
एक गहरा जोख़िम
रास्ते की तरह खुलती
एक जटिल सच्चाई मुझे चाहिए ।

- शुभा .
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Masters ( हिंदी )

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!

नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिन्‍ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!
बीन भी हूँ मैं...

नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूँ,
शलभ जिसके प्राण में वह निठुर दीपक हूँ,
फूल को उर में छिपाए विकल बुलबुल हूँ,
एक होकर दूर तन से छाँह वह चल हूँ,
दूर तुमसे हूँ अखंड सुहागिनी भी हूँ!
बीन भी हूँ मैं...

आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसके बिछे हैं पाँवड़े पलके,
पुलक हूँ जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूँ वही प्रतिबिम्ब जो आधार के उर में,
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ!
बीन भी हूँ मैं...

नाश भी हूँ मैं अनंत विकास का क्रम भी
त्याग का दिन भी चरम आसिक्त का तम भी,
तार भी आघात भी झंकार की गति भी,
पात्र भी, मधु भी, मधुप भी, मधुर विस्मृति भी,
अधर भी हूँ और स्‍िमत की चांदनी भी हूँ

- महादेवी वर्मा .

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क्वांरी .


मैंने जब तेरी सेज पर पैर रखा था
मैं एक नहीं थी - दो थी
एक समूची ब्याही
और एक समूची क्वांरी ...
तेरे भोग की खातिर -
मुझे उस क्वांरी को क़त्ल करना था .
मैंने क़त्ल किया था -
ये क़त्ल
जो कानूनन जायज़ होते हैं ,
सिर्फ उनकी जिल्लत
नाजायज़ होती है .
और मैंने उस जिल्लत का
ज़हर पिया था .
फिर सुबह के वक़्त -
एक खून में भीगे
अपने हाथ देखे थे ,
हाथ धोये थे -
बिलकुल उस तरह
ज्यों और गंदले अंग धोने थे ,
पर ज्यों ही मैं शीशे के सामने आई
वह सामने खड़ी थी
वही , जो अपनी तरफ से
मैंने रात क़त्ल की थी
ओ खुदाया !
क्या सेज का अँधेरा बहुत गाढ़ा था ?
मुझे किसे क़त्ल करना था
और किसे क़त्ल कर बैठी ...

--------------- और -------------

अन्नदाता .

अन्नदाता !
मेरी ज़बान पर तुम्हारा नमक है
तुम्हारा नमक
मेरे बाप के होठों पर
और मेरे इस बुत में
मेरे बाप का खून है ...

मैं कैसे बोलूं ?
मेरे बोलने से पहले
तेरा अनाज बोल पड़ता है
कुछ एक बोल थे ,
पर हम अनाज के कीड़े !
और अनाज के भार तले
वे बोल दब कर रह गए ...

अन्नदाता ! मेरे माता पिता कामगर ,
कामगर की संतान कामगर
कामगर का काम सिर्फ काम
बाकी भी तो काम
यही चाम करता है ,
वह भी एक काम
यह भी एक काम .

अन्नदाता ! मैं मांस की गुडिया
खेल ले , खिला ले
लहू का प्याला , पी ले , पिला ले
तेरे सामने खड़ी हूँ
इस्तेमाल की चीज़ , कर लो इस्तेमाल !

उगी हूँ , पीसी हूँ , बेलन से बिली हूँ
आज गर्म तवे पर जैसे चाहो उलट लो !
मैं एक निवाले से बढ़कर कुछ नहीं ,
जैसे चाहो निगल लो !
तुम लावे से बढ़कर कुछ नहीं ,
जैसे चाहो पिघल लो !
लावे में लपेट लो !
क़दमों में खड़ी हूँ , बाहों में समेट लो !

अन्नदाता !
मेरी ज़बान और इनकार ?
यह कैसे हो सकता है !
हाँ ...प्यार ...
यह तेरे मतलब की शै नहीं .


- अमृता प्रीतम .
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Masters ( English ) -

Phenomenal Woman .

Pretty women wonder where my secret lies.
I'm not cute or built to suit a fashion model's size
But when I start to tell them,
They think I'm telling lies.
I say,
It's in the reach of my arms
The span of my hips,
The stride of my step,
The curl of my lips.
I'm a woman
Phenomenally.
Phenomenal woman,
That's me.

I walk into a room
Just as cool as you please,
And to a man,
The fellows stand or
Fall down on their knees.
Then they swarm around me,
A hive of honey bees.
I say,
It's the fire in my eyes,
And the flash of my teeth,
The swing in my waist,
And the joy in my feet.
I'm a woman
Phenomenally.
Phenomenal woman,
That's me.

Men themselves have wondered
What they see in me.
They try so much
But they can't touch
My inner mystery.
When I try to show them
They say they still can't see.
I say,
It's in the arch of my back,
The sun of my smile,
The ride of my breasts,
The grace of my style.
I'm a woman

Phenomenally.
Phenomenal woman,
That's me.

Now you understand
Just why my head's not bowed.
I don't shout or jump about
Or have to talk real loud.
When you see me passing
It ought to make you proud.
I say,
It's in the click of my heels,
The bend of my hair,
the palm of my hand,
The need of my care,
'Cause I'm a woman
Phenomenally.
Phenomenal woman,
That's me. 

3 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

गज़ब का कलेक्शन ... बहुत ही प्रभावी रचनाएं ... दिल में सीधे लकीर बनाते हुए उतरती हैं ...
बहुत ही लाजवाब ...

Sarik Khan Filmcritic ने कहा…

बहुत बढि़या- सारिक खान
http://sarikkhan.blogspot.in/

meeta ने कहा…

पढने और सराहने के लिए आप सभी का ह्रदय से आभार .

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