रविवार, 12 मई 2013

माँ


'माँ' - अपने आप में मुकम्मल, छोटा सा एक लफ्ज़, जिसे परिभाषित करना आसान नहीं. कोई भी कविता, कोई भी कहानी, शब्दों का कैसा भी मनोहारी ताना-बाना इसे सम्पूर्णता में अभिव्यक्ति नहीं दे सकता. इसे समझने के लिए, माँ की गोद में जाने के लिए लालायित नन्हे शिशु की नर्म बाहें, उसके आँखों और चेहरे की दूधिया मुस्कान पढनी पड़ेगी ... पढनी पड़ेगी माँ की छाती से चिपक कर सोये बच्चे की गहरी, निश्चिन्त नींद ... पढनी पड़ेगी वो घुट्टी जो संस्कार के रूप में माँ पिलाती है बच्चों को ... पढने पड़ेंगे वो आंसू, जो बच्चे को उस की गलती की सजा देने के बाद माँ छिप कर पोंछती है.

आखिर माँ होना एक ज़िम्मेदारी भी तो है ... बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी .

टैगोर कहते हैं ईश्वर सभी जगह मौजूद नहीं हो सकता था इस लिए उसने माँ बनाई. वे माँ में ईश्वर देखते हैं, और ईश्वर में माँ. वे कहते हैं -

" भोर के झुटपुटे में, मैं अपनी आंखें खोलता हूँ और तुम्हें देखता हूँ ऐसे, जैसे कोई नन्हा बच्चा, कच्ची नींद में उठ कर माँ का स्नेहिल चेहरा देखे, और दोबारा, निश्चिन्त, सो जाये."

कुछ अभिव्यक्तियाँ माँ के नाम -

-  मीता .
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माँ कबीर की साखी जैसी

माँ कबीर की साखी जैसी
तुलसी की चौपाई-सी
माँ मीरा की पदावली-सी
माँ है ललित रुबाई-सी।


माँ वेदों की मूल चेतना
माँ गीता की वाणी-सी
माँ त्रिपिटक के सिद्ध सूक्त-सी
लोकोत्तर कल्याणी-सी।


माँ द्वारे की तुलसी जैसी
माँ बरगद की छाया-सी
माँ कविता की सहज वेदना
महाकाव्य की काया-सी।


माँ अषाढ़ की पहली वर्षा
सावन की पुरवाई-सी
माँ बसंत की सुरभि सरीखी
बगिया की अमराई-सी।


माँ यमुना की श्याम लहर-सी
रेवा की गहराई-सी
माँ गंगा की निर्मल धारा
गोमुख की ऊँचाई-सी।


माँ ममता का मानसरोवर
हिमगिरि सा विश्वास है
माँ श्रद्धा की आदि शक्ति-सी
काबा है कैलाश है।


माँ धरती की हरी दूब-सी
माँ केशर की क्यारी है
पूरी सृष्टि निछावर जिस पर
माँ की छवि ही न्यारी है।


माँ धरती के धैर्य सरीखी
माँ ममता की खान है
माँ की उपमा केवल माँ है
माँ सचमुच भगवान है।


-डॉ. जगदीश व्योम .
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अम्मा

चिंतन दर्शन जीवन सर्जन रूह नज़र पर छायी अम्मा
सारे घर का शोर शराबा सूनापन तन्हाई अम्मा .

उसने खुद को खोकर मुझ में एक नया आकार लिया है
धरती अम्बर आग हवा जल जैसी ही सच्चाई अम्मा .

सारे रिश्ते जेठ-दुपहरी गर्म हवा आतिश अंगारे
झरना दरिया झील समंदर भीनी सी पुरवाई अम्मा .

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती थी जाने कब तुरपाई अम्मा .

बाबू जी गुजरे, आपस में सब चीज़ें तकसीम हुईं
मैं घर में सब से छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा .

- आलोक श्रीवास्तव .
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कम खुदा न थी परोसने वाली

चार जने बैठे जीमने रात का भोजन
सब बच-बच कर खा रहे
तीनों बच्चे तक समझदार
पीते बीच-बीच में पानी
पिता लेते नकली डकार
माँ थी
सबके बाद खाने वाली .

जिसके लिए दाना नहीं
देगची में बची थी हलचल
चुल्लू भर पानी की
और कटोरदान में
भाप के चन्द्रमा जैसी छाया थी

पर कम खुदा न थी
परोसने वाली
बहुत है अभी इसमें
मैंने तो देर से खाया है
कहते परोसते जाती .

- चंद्रकांत देवताले .

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अशआर 

ऐ अँधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया
माँ ने आंखें खोल दीं घर में उजाला हो गया .

मैं ने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना .

किसी के हिस्से में घर आया, किसी के हिस्से दुकान आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई .

लबों पे उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो कभी खफा नहीं होती .

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है .

अभी जिंदा है मेरी माँ मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ , दुआ भी साथ चलती है .

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है .

मेरी ख्वाहिश है मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह से लिपटूं कि बच्चा हो जाऊं .

मुनव्वर माँ के आगे यों कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती .

- मुनव्वर राना .

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बेसन की सौंधी रोटी पर

बेसन की सौंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ

बांस की खुररी खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई, आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ .

चिड़ियों की चहकार में गूंजे
राधा-मोहन अली-अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुण्डी जैसी माँ

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर एक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ .

बाँट के अपना चेहरा माथा
आँखें जाने कहाँ गयी
फटे पुराने एक एल्बम में
चंचल लड़की जैसी माँ .

- निदा फाजली .
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माँ की याद 

चीटियाँ अंडे उठा कर जा रही हैं
और चिड़ियाँ नीड़ को चारा दबाए
थान पर बछड़ा रंभाने लग गया है
टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए


थाम आँचल थका बालक रो उठा है
है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए
बाँह दो चुमकारती-सी बढ़ रही हैं
साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाए


शोर डैनों में छिपाने के लिए अब
शोर माँ की गोद जाने के लिए अब
शोर घर-घर नींद रानी के लिए अब
शोर परियों की कहानी के लिए अब


एक मैं ही हूँ कि मेरी साँझ चुप है
एक मेरे दीप में ही बल नहीं है
एक मेरी खाट का विस्तार नभ-सा
क्यों कि मेरे शीश पर आँचल नहीं है


- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना .
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Clouds and Waves .

Mother, the folk who live up in the clouds call out to me-
"We play from the time we wake till the day ends.
We play with the golden dawn, we play with the silver moon."
I ask, "But how am I to get up to you ?"
They answer, "Come to the edge of the earth, lift up your
hands to the sky, and you will be taken up into the clouds."
"My mother is waiting for me at home, "I say, "How can I leave
her and come?"
Then they smile and float away.
But I know a nicer game than that, mother.
I shall be the cloud and you the moon.
I shall cover you with both my hands, and our house-top will
be the blue sky.
The folk who live in the waves call out to me-
"We sing from morning till night; on and on we travel and know
not where we pass."
I ask, "But how am I to join you?"
They tell me, "Come to the edge of the shore and stand with
your eyes tight shut, and you will be carried out upon the waves."
I say, "My mother always wants me at home in everything-
how can I leave her and go?"
They smile, dance and pass by.
But I know a better game than that.
I will be the waves and you will be a strange shore.
I shall roll on and on and on, and break upon your lap with
laughter.
And no one in the world will know where we both are. 

3 टिप्‍पणियां:

Rajendra kumar ने कहा…

माँ को समर्पित बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,आभार.

राहुल ने कहा…

सब एक से बढ़कर एक...

अज़ीज़ जौनपुरी ने कहा…

beautiful collection with fragrance

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