बुधवार, 14 अगस्त 2013

जहां चित्‍त भय से शून्‍य हो ...





प्रति वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर हम याद करते हैं उन्हें, जिनकी बदौलत स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक होने का गौरव पा सके हैं। ये दिन छू कर गुज़रता है तो ह्रदय को राष्ट्र प्रेम और राष्ट्राभिमान से ओत प्रोत कर जाता है। याद आते हैं भगत सिंह, सुखदेव, आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोस, तिलक, गांधी जी … अनथक तप और अनगिन प्राणों की यज्ञाहुति से मिली प्रसाद में ये अमूल्य धरोहर - स्वतन्त्रता।

पर, ज़रा ठहर कर सोचते हैं, क्या वास्तव में हम ऐसी एक दुनिया बना सके हैं अपने लिए, जिसे गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर ने नाम दिया था 'स्वतन्त्रता का स्वर्ग', जहाँ प्रत्येक मनुष्य का चित्त भयशून्य और मस्तक उन्नत हो! उस परिकल्पना को यथार्थ का रूप देने में हम कहाँ तक सफल रहे हैं ? ये बात तो पूरी तरह तय है, कि दुनिया से अलग-थलग मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं ।

"खुदा को पा गया वाइज़ मगर है
ज़रुरत आदमी को आदमी की ।"
- फिराक गोरखपुरी .

कितने बंधे हैं हम, और किस सीमा तक स्वतंत्र हैं ? अब भी क्या कुछ ऐसा है, जिस से हमें स्वतंत्रता चाहिए ? कहते हैं 'जहाँ न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि'। तो आज कवि की दृष्टि से मनुष्य, स्वतन्त्रता, मूल्य, परिवर्तन आदि को देखने का एक छोटा सा प्रयास इस स्वतन्त्रता दिवस पर -

"ज़रा पैलेट संभालो रंगो बू का
मैं कैनवस आसमां का खोलता हूँ
बनाओ फिर से सूरत आदमी की ।"
- गुलज़ार .

सभी मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
- मीता .
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खाली पेट 

तुमने आदमी को खाली पेट दिया
ठीक किया
पर एक प्रश्न है रे नियति
खाली पेटवालों को
तुमने घुटने क्यों दिए ?
फैलने वाले हाथ क्यों दिए ?

- अभिमन्यु अनत .
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अनुशासन पर्व  ( काव्यांश )

…ये कौन सिले हुए होठों से अविराम अभिनन्दन बांच रहे हैं ?
ये कैसा अजीब त्यौहार है मेरे मालिक !
मैं इस में कहाँ हूँ ?

तो क्या शब्दकोष से मिटा दिया गया
एक गैरज़रूरी शब्द स्व-तं-त्र-ता
एक तकलीफ देह शब्द जो खामखाह याद दिलाता था
नीला फैला आकाश, खुली खिडकी, आज़ाद तैरते बादल,
पांखी की चहक, झूमती डाली, पहाड़ी नदी,
उन्मुक्त चंचल बच्चे
घर लौटते निश्चिंत, बतियाते लोग

अब सहमे हुए लोग बतियाते नहीं
बाँध दी गयी हैं झूमती शाखें
कसी हुई मुट्ठियाँ, तरेरी हुई आँखें
रातोंरात बदल गयीं अपने आप …
हवाओं में सिसकता हुआ रुंधे गलों का भयभीत जयजयकार !
परवरदिगार !
पर अपनी इस आत्मा नाम की चीज़ का क्या करूं
क्या करूं अपने इस एक-एक शब्द का
जिस पर अमिट है तुम्हारे हाथों की हल्दी छाप ।

- धर्मवीर भारती
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घड़ियों की सुइयों संग

घड़ियों की सुइयों संग
घूम रहे हम
कालजयी होने का टूट रहा भ्रम !

अनुबंधित राहों पर
प्रतिबंधित चाल
लायें तो लायें भी कैसे भूचाल
हिल्लोलें भीतर की बहार बेदम !

आयातित चश्मों को
आँखों पर टांग
सपनीले ' भावों ' की मुद्रण की मांग
बल्बों की गर्दन घोंट रहा तम !

विस्मृतियाँ जितनी हैं
उतनी ही शोध
प्यालों में डूबा है भावी युगबोध
सम्भासित यौवन से बूढा संयम !

उठते निर्माणों में
साँसों की आह
धरती की छाती पर रंगीनी स्याह
पेटों तक सीमोचित बाहों का श्रम !

- रामकुमार कृषक .
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मुझे हैरानी है

अगर
स्वस्थ रहने का मतलब
वातावरण का सारा ऑक्सीजन
अपने फेफड़ों में भर कर अमर हो जाना है
तो मुझे नहीं चाहिए
यह ज़िन्दगी ।

अगर
अपने खेत सींचने का मतलब
औरों को मजबूर करना है
किसी बंजर मरुभूमि में रेट फांकने के लिए
तो मैं तरजीह दूंगा
भूखा मर जाने को ।

अगर
शांतिप्रिय होने का मतलब
दूसरों को आतंकित करके
चैन की नींद सोना है
तो मुझे घृणा है
ऐसी शांति से ।

अगर
राष्ट्रप्रेम एक सीमा में उगे पेड़ की
दूसरी तरफ पड़ने वाली छांव से
नफरत का नाम है
तो मुझे हैरानी है ।

मुझे हैरानी है
की ब्रह्माण्ड में चक्कर काटते हुए
असंख्य तारों और ग्रहों से टकरा कर
नष्ट क्यों नहीं हो गयी ये पृथ्वी
अब तक ।

- नोमान शौक़ . 
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थोडा-सा

अगर बच सका
तो वही बचेगा
हम सब में थोडा सा आदमी -
जो रौब के सामने नहीं गिड़गिडाता ,
अपने बच्चे के नंबर बढवाने नहीं जाता मास्टर के घर ,
जो रास्ते पर पड़े घायल को सब काम छोड़ कर
सबसे पहले अस्पताल पहुंचाने का जतन करता है ,
जो अपने सामने हुई वारदात की
गवाही देने से नहीं हिचकिचाता -
वही थोडा सा आदमी -
जो धोखा खाता है पर प्रेम करते रहने से नहीं चूकता ,
जो अपनी बेटी के अच्छे फ्रॉक के लिए
दूसरे बच्चों को थिगड़े पहनने पर मजबूर नहीं करता -

जो दूध में पानी मिलाने से हिचकता है ,
जो अपनी चुपड़ी खाते हुए
दूसरे की सूखी के बारे में सोचता है -
वही थोडा सा आदमी -
जो बूढों के पास बैठने से नहीं ऊबता
जो अपने घर को चीज़ों का गोदाम बनने से बचाता है ,
जो दुःख को अर्जी में बदलने की मजबूरी पर दुखी होता है
और दुनिया को नरक बना देने के लिए
दूसरों को ही नहीं कोसता ।

वही थोडा सा आदमी -
जिसे खबर है कि
वृक्ष अपनी पत्तियों से गाता है अहरह एक हरा गान ,
आकाश लिखता है नक्षत्रों की झिलमिल में एक दीप्त वाक्य ,
पक्षी आंगन में बिखेर जाते हैं एक अज्ञात व्याकरण -
वही थोडा सा आदमी
अगर बच सका
तो वही बचेगा ।

- अशोक वाजपेयी  .
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अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा 

देखो, मैंने कंधे चौड़े कर लिए हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एड़ियां जमा कर
खड़ा होना मैंने सीख लिया है।

घबराओ मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूँ।
सूरज ठीक जब पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा
मैं कंधे अड़ा दूंगा।
देखना वह वहीँ ठहरा होगा।

अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।

मैंने सुना है
उस के रथ में तुम हो
तुम्हें मैं उतार लाना चाहता हूँ -
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो कालातीत प्यार हो
तुम जो मेरी धमनियों का प्रवाह हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
तुम्हें मैं उस रथ से
       उतार लाना चाहता हूँ।

रथ के घोड़े
आग उगलते रहें
अब पहिये टस से मस नहीं होंगे।
मैंने अपने कंधे चौड़े कर लिए हैं।

कौन रोकेगा तुम्हें ?
मैंने धरती बड़ी कर ली है।
अन्न की सुनहरी बालियों से
              मैं तुम्हें सजाऊँगा,
मैंने सीना खोल लिया है
              प्यार के गीतों में मैं तुम्हें गाऊंगा,
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है
             हर आँखों में तुम्हें सपनों सा फहराऊंगा।

सूरज जायेगा भी तो कहाँ ?
उसे यहीं रहना होगा
यहीं - हमारी साँसों में
          हमारी रगों में
          हमारे संकल्पों में
          हमारे रतजगों में।

         तुम उदास मत होओ
         अब मैं किसी भी सूरज को
                        नहीं डूबने दूंगा।

जूते की कील नहीं होंगी
शामें
जो तुम्हें चुभें।
मैंने यात्रा बड़ी कर ली है
कंधे चौड़े कर लिए हैं।

- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना .
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जहां चित्‍त भय से शून्‍य हो 

जहां चित्‍त भय से शून्‍य हो 
जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें
जहां ज्ञान मुक्‍त हो 
जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर 
छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों 

जहां हर वाक्‍य ह्रदय की गहराई से निकलता हो
जहां हर दिशा में कर्म के अजस्‍त्र नदी के स्रोत फूटते हों
और निरंतर अबाधित बहते हों 
जहां विचारों की सरिता 
तुच्‍छ आचारों की मरू भूमि में न खोती हो
जहां पुरूषार्थ सौ सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो 
जहां पर सभी कर्म, भावनाएं, आनंदानुभुतियाँ तुम्‍हारे अनुगत हों

हे पिता, अपने हाथों से निर्दयता पूर्ण प्रहार कर
उसी स्‍वातंत्र्य स्‍वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ


अनुवाद - कवि शिवमंगल सिंह "सुमन". 

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सरगम 
'मेरे देस में पवन चले पुरवाई' … सरगम में रफ़ी साहब की आवाज़ में ये मीठा गीत, अपने देस के नाम। 

13 टिप्‍पणियां:

अनुपमा पाठक ने कहा…

राष्ट्रपर्व के शुभावसर पर चिरंतन की शानदार प्रस्तुति!!

कोटि कोटि आभार!

Durga prasad mathur ने कहा…

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ साथ आपको इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई !

Rajendra kumar ने कहा…

अतिसुन्दर ,स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

बहुत बढ़िया.. स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें...

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

आपके विचारों सहित अपने क्षेत्र के कालजयी साहित्यकारों की रचनाएं पढवाने का आभार.

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.

रामराम.
"दो और दो पांच" में पहुंची वाणी शर्मा !

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

बहुत कुछ एक साथ... वाह !!

Dr ajay yadav ने कहा…

सुंदर संकलन |
पढ़कर अच्छा लगा |
नई पोस्ट-“जिम्मेदारियाँ..................... हैं ! तेरी मेहरबानियाँ....."

Unknown ने कहा…

सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति.शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामना
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

http://madan-saxena.blogspot.in/
http://mmsaxena.blogspot.in/
http://madanmohansaxena.blogspot.in/
http://mmsaxena69.blogspot.in/

संतोष पाण्डेय ने कहा…

ऐसा ही जीवन रोज चले।

Ravikant yadav ने कहा…

good , read and follow me also , i will also .....

CHIRANTAN ने कहा…

चिरंतन को ब्लॉग बुलेटिन में स्थान देने के लिए आपका बहुत धन्यवाद .

CHIRANTAN ने कहा…

पढने और सराहने के लिए सभी मित्रों का आभार.

बेनामी ने कहा…

very good,keep it up bhai

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