शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

हम-जो सोचते हैं

न रास्ता कहीं मुड़ता है
   न सड़कें कहीं जाती हैं।

'हम'-
  एक जयघोष है
      जिसे हवा
      घर से चौराहे तक
      दिन भर भटकाती है।

हर नया दिन
   एक समझौता है
   जो हमें जोड़ता है
   पर घंटे की हर चोट
   कहीं न कहीं अलगाती है।

एक गति है
   जो हमसे छूट कर
   नगर की तमाम घड़ियों से परे
   कहीं चलती चली जाती है।

हर जेब के भीतर
   कुछ दबे हुए फूल हैं
   और हर फूल के नीचे
   एक सुलगती हुई भाषा
   जिसे सूरज समझता है।

एक वाद्य है
   जो देर-देर तक
   हमारे नृत्य और लयों के बाद
   कहीं सूने में बजता है।

समुद्र
   वहाँ नहीं है
   जहाँ दिन के सतरंगे घोड़े
   उतरते हैं
वह हमारे आस पास,
   हमारी छाती में,
   हमारी हड्डियों के भीतर है
   जहाँ रात के सन्नाटे में
        हम सोचते-से रहते हैं।

सूर्योदय
   चाहे एक
      खाली गुलदस्ता हो
चाहे एक आघातहीन
      ताज़ा समाचार
पर बेशक हर बार
      वह एक हल्का सा उत्तर है

हम चुप हों
   पर वह चुप्पी
       बच्चे सुनते हैं
और यों
   हमारा हर शब्द
   किसी नए ग्रहलोक में
        एक जन्मान्तर है।

- केदारनाथ सिंह 

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