सोमवार, 30 दिसंबर 2013

दिन

वही पुराना सूरज,
रोज़ आसमान के
ठीक उसी कोने से,
ऐन उसी वक़्त पर,
आँख मलता उगता है।

पास के दरख्तों के
पहचाने झुरमुट से
फूटता है चिड़ियों का
वह सुना-सुना कलरव …

दूर सड़क पर कहीं
दौड़ते शहर का
इक बदस्तूर शोर
जैसे बहती हो नदी कोई।

चाय के पहले कप की
ताज़ी गर्माहट में ,
और अखबार की बासी कड़वाहट में ,
तकरीबन
रोज़
उसी ढर्रे पर चलती है
धूल खाये लम्हों की
लम्बी फेहरिस्त जैसी
ज़िन्दगी।

ज़र्द चेहरा, पीले से …
एक सीधी रेखा में
खड़े हैं हज़ारों दिन,
धुवाँ-धुवाँ,
सीले से।

कुछ मगर
किनारे से
कुरकुरे-करारे से,
धूप में नहाये हुए,
चमचमाते, चटखे से,
इधर-उधर अटके से
दिन, जो बीच-बीच में
ताक-झाँक जाते हैं …

वो
फ़क़त वही दिन हैं
जो तुम्हारी आँखों की
रौशनी में उगते हैं …
जो तुम्हारे होठों की
धुन पे मुस्कुराते हैं।

- मीता  .




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