सोमवार, 30 दिसंबर 2013

दिन का दिन

बंद माचिस की डिबिया में
कई जलते दिन रखे है
सूरज में आग लगा
बुझ जाती है बारूद वाली तीली

बूढ़ा सर पर बोझ लिए
जलाता है अपना दिन...
दिन साँसे फूकता रहे
इसलिए फूँक लेता है
दो चार कश
और उड़ते धुए में दिन की तलाश करता है।

औरत जो जलते चूल्‍हे
में दिन डाल देती है
तवे पर सेक कर
अरमानो को किसी
कोने में छिपा देती है 
थाली में वही सिका
हुआ दिन खट्टी चटनी से परोसती है ..

देखा है उसे नन्हे से बच्चे को
जो दिन पर लोट कर उसकी
आलस  भर अंगड़ाई तोड़ता है
नदी के उस पार गेंद की तरह फेंक देता है दिन

आकाश में ठहरा सूरज
थक जाता है तन्हा
खुद में विस्फोटक भर
पानी में छपाक से कूद जाता है
फिर  एक नये दिन के आगाज़ में….

- नीलम समनानी चावला  .  

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