शनिवार, 21 दिसंबर 2013

सुबह-सुबह उठ जाऊंगी।

कल सुबह मैं
अवश्य सुबह-सुबह
उठ जाऊंगी
नहीं, पड़ी नहीं रहूंगी
औंधी बिस्तर में
यह कह कि मुझको
उठकर ही क्या
करना है

कल सुबह मैं
अवश्य सुबह-सुबह
उठ जाऊंगी और
बाहर जा कर
दोनों बाहों को
एक बड़े द्वार सा
खुलने दूँगी
ताकि सूरज
भीतर आये
तब मैं उस आ गयी धूप को
आसन दे कर
बहुत देर तक
माथे पर उसकी
गर्म हथेली रख लूंगी

कल सुबह मैं
सुबह-सुबह
खड़ी रहूंगी पार्क की
रेलिंग पकडे
देखूंगी उस कबाड़
बटोर रहे बूढ़े को
जो हमारी फेंकी
इतनी बड़ी कूड़े की ढेरी में
ढूंढ रहा होगा
चिथड़े जो गुदड़ी बन जाएं,
पुराने प्लास्टिक की थैलियां
जो गल कर चप्पल बन जाएं

नहीं, मैं उसे यह सब करते देख
अन्य दिनों की तरह
घिनाऊंगी नहीं
क्योंकि तब तक धूप
बीन चुकी होगी
मुझमें से वह सब
जो रह जायेगा कहीं
बाद मेरे भी

मैं कल सुबह
अवश्य सुबह-सुबह
उठ जाऊंगी।

- सुनीता जैन   .






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