"साल दर साल वही किस्सा है
कुछ न बदला है न बदलेगा, मगर
फिर भी इस साल से उम्मीदें हैं
ये गए साल से बेहतर होगा … "
हर नया साल, पुराने साल की टूटी किरचों पर पाँव रखता आता है। साल गुज़र जाता है जाने कितने विश्वास, न जाने कितने ही भ्रम तोड़ता, आस्थाओं पर उंगलियां उठाता, यकीनों में दरार पैदा करता हुआ। अपने भीतर की इस टूटन से कराह कर, कह बैठती है लेखनी -
"जैसे सोच की कंघी में से
एक दंदा टूट गया
जैसे समझ के कुर्ते का
एक चीथड़ा उड़ गया
जैसे आस्था की आँखों में
एक तिनका चुभ गया …
जैसे विश्वास के कागज़ पर
सियाही गिर गयी …
और जैसे धरती ने आसमान का
एक बड़ा उदास सा ख़त पढ़ा
नया साल कुछ ऐसे आया …"
- अमृता प्रीतम .
अपने इर्द-गिर्द के हालात से तड़प कर चीख उठता है शायर -
"भूखे, ज़र्द, गदागर बच्चे
कार के पीछे भाग रहे हैं …
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के"
- साहिर लुधियानवी.
मगर फिर भी हर साल, हम नए साल का स्वागत करते ही हैं, क्योंकि भीतर कहीं एक उम्मीद लगातार रौशन रहती है, कि बदलाव ज़रूर आयेगा, बेहतरी होगी, सुकून औ सुकूत मिलेगा। कहाँ पढ़ा था याद नहीं, मगर ये उद्धरण दिलचस्प लगा -
"I believe in looking forward and moving ahead. Even a car has it's windscreen larger than it's rearview mirror."
मनुष्य अनास्था से आस्था की तरफ बार-बार जाता है। यही तो है जिजीविषा, कि गिरता है तो फिर हौसला बटोर कर उठता है। वैसे ही, जैसे डूब चुका सूरज नए दिन के साथ फिर उगता है और अँधेरे में डूबी धरती हुलस कर धूप के लिए अपना आँचल फैला लेती है।
वही अमृता कह उठती हैं -
"… इंसान के इख्तियार में सिर्फ इतना है -
कि जिबह हुए टुकड़े को
वह घबरा के फेंक दे, और डरे,
या निडर उसे कबाब की तरह भूने, खाये
और साँसों की शराब पीता
वह अगले टुकड़े का इंतज़ार करे …"
नहीं मिटती ज़िन्दगी से उम्मीद, नहीं टूटता आदमी का आदमी पर से भरोसा …
श्रद्धापूर्वक नमन उन सभी को जो गए वर्ष हमारा साथ छोड़ गए, और जिन की लेखनी का यकायक चुप हो जाना स्तब्ध कर गया। उन की कमी हमेशा खलती रहेगी।
नया वर्ष मंगलमय हो इसी कामना के साथ,
- मीता .
_________________________Masters (हिंदी)-
आज फिर शुरू हुआ जीवन
आज फिर शुरू हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी-सी बच्ची आयी, किलक मेरे कन्धे चढ़ी
आज मैंने आदि से अन्त तक पूरा गान किया
आज एक छोटी-सी बच्ची आयी, किलक मेरे कन्धे चढ़ी
आज मैंने आदि से अन्त तक पूरा गान किया
आज फिर जीवन शुरू हुआ।
- रघुवीर सहाय .
_______________________________________
- रघुवीर सहाय .
_______________________________________
ज़िन्दगी
ज़िन्दगी को
गन्ने की तरह
चूसने में मुझे मज़ा आता है।
मुझे अच्छा लगता है
तेज़ कुल्हाड़ी से
बहुत पक्की लकड़ी काटना।
मुझे अच्छा लगता है
गाँव की तंग कीचड भरी गली को
ईंट-पत्थर के टुकड़ों से पाटना।
अच्छा लगता है मुझे
हर सुबह
साफ़ दाढ़ी बना लेना।
गर्मी के दिनों में
सूख गयी नदियों की रेत में
झिरिया खना लेना।
अच्छा लगता है
अगर मेरी रात में भी
कोई चिड़िया चहके।
ज़िन्दगी आस-पास की अगर
किसी जड़ी-बूटी की तरह
महके।
अच्छा लगता है अगर मैं
अपनी रात को सिरहाने या पैताने
गुडी-मुड़ी करके चाहे जैसा घर पाऊँ !
अच्छा लगता है अगर
नए आये दिन को मैं
आगे बढ़ कर भुजाओं में भर पाऊँ !
-------------------- और ------------------
सूरज का गोला
सूरज का गोला
इसके पहले ही कि निकलता
चुपके से बोला,
हमसे - तुमसे, इससे - उससे
कितनी चीजों से
चिडियों से पत्तों से
फूलो - फल से, बीजों से-
"मेरे साथ - साथ सब निकलो
घने अंधेरे से
कब जागोगे, अगर न जागे, मेरे टेरे से ?"
सूरज का गोला
सूरज का गोला
इसके पहले ही कि निकलता
चुपके से बोला,
हमसे - तुमसे, इससे - उससे
कितनी चीजों से
चिडियों से पत्तों से
फूलो - फल से, बीजों से-
"मेरे साथ - साथ सब निकलो
घने अंधेरे से
कब जागोगे, अगर न जागे, मेरे टेरे से ?"
आगे बढकर आसमान ने
अपना पट खोला
इसके पहले ही कि निकलता
सूरज का गोला
अपना पट खोला
इसके पहले ही कि निकलता
सूरज का गोला
फिर तो जाने कितनी बातें हुईं
कौन गिन सके इतनी बातें हुईं
पंछी चहके कलियां चटकी
डाल - डाल चमगादड लटकी
गांव - गली में शोर मच गया
जंगल - जंगल मोर नच गया
कौन गिन सके इतनी बातें हुईं
पंछी चहके कलियां चटकी
डाल - डाल चमगादड लटकी
गांव - गली में शोर मच गया
जंगल - जंगल मोर नच गया
जितनी फैली खुशियां
उससे किरनें ज्यादा फैलीं
ज्यादा रंग घोला
और उभर कर ऊपर आया
सूरज का गोला
उससे किरनें ज्यादा फैलीं
ज्यादा रंग घोला
और उभर कर ऊपर आया
सूरज का गोला
सबने उसकी आगवानी में
अपना पर खोला ।
अपना पर खोला ।
- भवानी प्रसाद मिश्र .
_______________________________________
मैं सुबह का गीत हूँ !
नए नए विहान में
_______________________________________
मैं सुबह का गीत हूँ !
नए नए विहान में
असीम आसमान में
मैं सुबह का गीत हूँ !
मैं गीत की उड़ान हूँ
मैं गीत की उठान हूँ
मैं दर्द का उफान हूँ
मैं उदय का गीत हूँ
मैं विजय का गीत हूँ
सुबह-सुबह का गीत हूँ
मैं सुबह का गीत हूँ।
चला रहा हूँ छिप के
रौशनी के लाल तीर मैं
जगा रहा हूँ पत्थरों के
दिल में आज पीर मैं
गुदगुदा के फूल को
हंसा रहा हूँ आज मैं
ये सूना-सूना आसमां
बसा रहा हूँ आज मैं
सघन तिमिर के बाद फिर
मैं रौशनी का गीत हूँ
मैं जागरण का गीत हूँ
मैं सुबह का गीत हूँ।
बादलों की ओट से मैं
छिप के मुस्कुरा उठूँ
मैं ज़मीन से उड़ूँ
कि आसमां पे छा उठूँ
मैं उड़ूँ कि आसमां के
होश संग उड़ चलें
मैं मुडूं कि ज़िन्दगी की
राह संग मुड़ चलें
मैं ज़िन्दगी की राह पर
मुसाफिरों की जीत हूँ
मैं सुबह का गीत हूँ।
स्वर्ण गीत ले
विहग कुमार-सा चहक उठूँ
मैं ख़िज़ाँ की डाल पर
बहार-सा महक उठूँ
कंटकों के बंधनों में
फूल का उभार हूँ
मैं पीर हूँ, मैं प्यार हूँ
बहार हूँ, खुमार हूँ
भविष्य मैं महान हूँ
अतीत, वर्तमान हूँ
मैं युग-युगों का गीत हूँ
युग-युगों का गीत हूँ
मैं सुबह का गीत हूँ।
- धर्मवीर भारती .
_______________________________________________
हम जो सोचते हैं।
न रास्ता कहीं मुड़ता है
न सड़कें कहीं जाती हैं।
'हम'-
एक जयघोष है
जिसे हवा
घर से चौराहे तक
दिन भर भटकाती है।
हर नया दिन
एक समझौता है
जो हमें जोड़ता है
पर घंटे की हर चोट
कहीं न कहीं अलगाती है।
एक गति है
जो हमसे छूट कर
नगर की तमाम घड़ियों से परे
कहीं चलती चली जाती है।
हर जेब के भीतर
कुछ दबे हुए फूल हैं
और हर फूल के नीचे
एक सुलगती हुई भाषा
जिसे सूरज समझता है।
एक वाद्य है
जो देर-देर तक
हमारे नृत्य और लयों के बाद
कहीं सूने में बजता है।
समुद्र
वहाँ नहीं है
जहाँ दिन के सतरंगे घोड़े
उतरते हैं
वह हमारे आस पास,
हमारी छाती में,
हमारी हड्डियों के भीतर है
जहाँ रात के सन्नाटे में
हम सोचते-से रहते हैं।
सूर्योदय
चाहे एक
खाली गुलदस्ता हो
चाहे एक आघातहीन
ताज़ा समाचार
पर बेशक हर बार
वह एक हल्का सा उत्तर है
हम चुप हों
पर वह चुप्पी
बच्चे सुनते हैं
और यों
हमारा हर शब्द
किसी नए ग्रहलोक में
एक जन्मान्तर है।
- केदारनाथ सिंह .
___________________________________________
एक दृष्टिकोण
सूरज को सारे खून माफ़ हैं।
दुनिया के हर इंसान का
वह रोज़ एक दिन कतल करता है
और हर एक उम्र का एक टुकड़ा
रोज़ जिबह होता है
इंसान के इख्तियार में सिर्फ इतना है -
कि जिबह हुए टुकड़े को
वह घबरा के फेंक दे, और डरे,
या निडर उसे कबाब की तरह भूने, खाये
और साँसों की शराब पीता
वह अगले टुकड़े का इंतज़ार करे …
- अमृता प्रीतम .
इनकी कलम से -
नया दिन !
हर दिन
एक सा होता है...
वही दोहराव देख
मन कितना रोता है...
वैसे ही
चलता जाता है क्रम...
बढ़ते ही जाते हैं
अन्यान्य भ्रम...
कितनी तो
विवश हैं राहें...
कोई नहीं थामता
किसी की बाहें...
ज़िन्दगी हर दिन
ढलती शाम हो जाती है...
गम की आंधियां
बहुत सताती हैं...
प्रेम कहीं कोहरे में
ओझल होता है...
मैं तुम के द्वन्द में
मन बोझल होता है...
बादल
नए गगन की तलाश में
नयी राह पकड़ते हैं...
अजीब स्थिति है,
एक दूसरे के पूरक होकर
मन-मस्तिष्क आपस में खूब झगड़ते हैं...
ये सब
दिन भर
चलता रहता है...
पर ये भी सच है
हर रात के बाद
एक नया दिन निकलता है...
नए दिन की देहरी पर
नए विश्वास के साथ
चरण धरना है...
आसमान के
सूरज का स्वागत
धरा के अनगिन सूर्यों को करना है...
अपना तेज़
पहचान कर...
अपनी क्षमताओं को
जान कर...
जब हम
सूरज सम
लोककल्यान की खातिर जलेंगे...
तब देखना
नए दिन की आँखों में
सुनहरे स्वप्न पलेंगे...
"सर्वे भवन्तु सुखिनः"
वाली प्रार्थना
फलित हो जायेगी...
सुन्दर है कितनी ये धरा
हम सबके पूण्य प्रताप से
और ललित हो जायेगी...!
- अनुपमा पाठक .
____________________________________________
नया दिन …
रोज़ एक नए दिन का पार्सल दरवाज़े पर छोड़ जाता है वो
रोज़ नया, अज्ञात, मोहक एक उपहार।
रज़ाई में लिपटी
पिछले कल का कोर अपने पैरों तले और दबाती हूँ
सुस्ताते हुए, कुछ जान बूझ कर
मैं अनदेखा करती हूँ, टालती हूँ
नया दिन अपरिचित, अंजाना, भय मिश्रित कौतूहल सा …
उठूँ, न उठूँ? यह चारा है क्या?
परदे से छनती हुई किरणें, बच्चों का चहचहाना, गाड़ियों का शोर-
नये दिन का आह्वान तो हो ही गया
अब मैं इसका हिस्सा बनूँ, न बनूँ, बस इतनी सी मेरी डोर है
चलो, फिर पिछले कल को समेट कर रख ही दें ताख पर
उतरें आज की सीढ़ियां,
दरवाज़े पर पड़ा पार्सल खोलें …
शायद कुछ अनमोल, कुछ अनूठा और अपना हो
बचपन की किसी परी कथा सा रोचक
रोमांचक किसी सफ़र की तरह
नया दिन है, कुछ उदयमान तो हो ही सकता है
कोई आसरा तो दे ही सकता है
गुज़र जायेगा तो फिर समेटते रहोगी ,
उसका कोना अपने पैरों तले दबाओगी
तो क्यूँ न आज उसे गले लगा लो,
मिल तो लो उस के हर पल से …
कौन जाने क्या छिपा है इस दिन में?
- अनुराधा ठाकुर .
____________________________________________
दिन का दिन
बंद माचिस की डिबिया में
कई जलते दिन रखे है
सूरज में आग लगा
बुझ जाती है बारूद वाली तीली
बूढ़ा सर पर बोझ लिए
जलाता है अपना दिन...
दिन साँसे फूकता रहे
इसलिए फूँक लेता है
दो चार कश
और उड़ते धुए में दिन की तलाश करता है।
औरत जो जलते चूल्हे
में दिन डाल देती है
तवे पर सेक कर
अरमानो को किसी
कोने में छिपा देती है
थाली में वही सिका
हुआ दिन खट्टी चटनी से परोसती है ..
देखा है उसे नन्हे से बच्चे को
जो दिन पर लोट कर उसकी
आलस भरी अंगड़ाई तोड़ता है
नदी के उस पार गेंद की तरह फेंक देता है दिन
आकाश में ठहरा सूरज
थक जाता है तन्हा
खुद में विस्फोटक भर
पानी में छपाक से कूद जाता है
फिर एक नये दिन के आगाज़ में….
- नीलम समनानी चावला .
_____________________________________________
दिन
वही पुराना सूरज,
रोज़ आसमान के
ठीक उसी कोने से,
ऐन उसी वक़्त पर,
आँख मलता उगता है।
पास के दरख्तों के
पहचाने झुरमुट से
फूटता है चिड़ियों का
वह सुना-सुना कलरव …
दूर सड़क पर कहीं
दौड़ते शहर का
इक बदस्तूर शोर
जैसे बहती हो नदी कोई।
चाय के पहले कप की
ताज़ी गर्माहट में ,
और अखबार की बासी कड़वाहट में ,
तकरीबन
रोज़
उसी ढर्रे पर चलती है
धूल खाये लम्हों की
लम्बी फेहरिस्त जैसी
ज़िन्दगी।
ज़र्द चेहरा, पीले से …
एक सीधी रेखा में
खड़े हैं हज़ारों दिन,
धुवाँ-धुवाँ,
सीले से।
कुछ मगर
किनारे से
कुरकुरे-करारे से,
धूप में नहाये हुए,
चमचमाते, चटखे से,
इधर-उधर अटके से
दिन, जो बीच-बीच में
ताक-झाँक जाते हैं …
वो
फ़क़त वही दिन हैं
जो तुम्हारी आँखों की
रौशनी में उगते हैं …
जो तुम्हारे होठों की
धुन पे मुस्कुराते हैं।
- मीता .
___________________________________________
एक और दिन आएगा
एक और दिन आएगा , एक स्त्रियोचित दिन
अपनी उपमा में स्पष्ट, अस्तित्व में सम्पूर्ण
हीरा परख में , शोभायात्रा जैसा
धूपदार, लचीला, एक हलकी परछाईं के साथ।
किसी को भी नहीं आयेगी छोड़ कर जाने की इच्छा।
सारी चीज़ें अतीत से बाहर की ,
प्राकृतिक और वास्तविक
अपने पुराने लक्षणों की पर्यायवाची होंगी।
जैसे कि समय गहरी नींद सोया हो छुट्टी में …
एक और दिन आएगा , एक स्त्रियोचित दिन
भंगिमा में गीत जैसा
अभिवादन और वाक्यांश में नीलम।
पानी बहेगा चट्टान के सीने से।
न धूल , न अकाल , न पराजय।
और अगर फाख्ते को प्रेमियों के बिस्तर पर नहीं मिला एक छोटा सा घोंसला
तो वह दोपहर को सोयेगा
एक परित्यक्त कॉम्बैट टैंक के भीतर …
- महमूद दरवेश .
( फलीस्तीनी कवि )
अनुवाद - अशोक पांडे .
( सदानीरा से साभार )
__________________________________________
आशावाद
हम सुन्दर दिन देखेंगे, बच्चो
उजली धूप वाले दिन …
हम अपनी द्रुतगामी नावों को खुले समुद्र में ले जायेंगे, बच्चो
हम उन्हें दौड़ाएंगे चमकीले, नीले विस्तृत सागर में …
कल्पना करो पूरी गति से जाने की
वह मोटर का घूमना !
वह मोटर का गुर्राना !
आह ! बच्चो कौन बता सकता है
कितना अद्भुत होता है
सौ मील की गति को चूम सकना !
आज के दिन की सच्चाई है
हम रोशनी से नहाई सड़कों पर
सजी दूकानों को निहारते हैं
जैसे कोई परीकथा सुन रहे हों
ये कांच की दीवारों वाली
सतहत्तर मंज़िला दुकानें।
सच्चाई यह है
जब हम चिल्ला कर जवाब मांगते हैं
हमारे लिए काली किताब खुल जाती है !
चमड़े की पेटियों से हमारे हाथ बांध दिए जाते हैं !
यह सच है हमारे खाने की मेज़ पर
हफ्ते में एक दिन गोश्त तो है
मगर हमारे बच्चे काम से घर लौटते हैं
विवर्ण कंकालों की तरह …
यह आज की सचाई है
लेकिन मुझ पर यकीन करो
हम अच्छे दिन देखेंगे बच्चो
देखेंगे उजली धूप वाले दिन
अपनी द्रुतगामी नौकाओं को दौड़ाएंगे खुले समुद्र में
हम उन्हें दौड़ाएंगे विस्तृत, चमकीले नीले सागर में।
- नाज़िम हिकमत .
( तुर्की कवि )
अनुवाद - शेखर जोशी
___________________________________________
आज, आने वाले कल का बीता हुआ कल है।
आज -
अतीत का भविष्य है।
आज -
भविष्य का अतीत भी है।
आज
बीता हुआ कल था
आने वाले कल का।
भविष्य का आज
अतीत का आने वाला कल होगा।
अतीत का अतीत क्या है ?
वर्तमान का वर्तमान क्या है ?
क्या है भविष्य का भविष्य ?
अतीत से बना है वर्तमान।
वर्तमान बना रहा है भविष्य।
इस क्षण का आज
आने वाले कल में गुज़रा हुआ कल होगा।
किन्तु अपरिचित है आने वाला कल।
अतीत की परछाईं वर्तमान है।
अतीत को वर्तमान की छाया छूती है।
किन्तु अपरिचित रहेगा आने वाला कल।
- रोंमेल मार्क डोमिनिगुएज मार्शन .
अनुवाद - मीता पंत
___________________________________________
इस साल-
इस साल
अब
मैं कितना इंतज़ार कर रहा हूँ बसंत का
नहीं
हमेशा की तरह नहीं
मैं ठण्ड से थक गया हूँ और सूरज की कामना करता हूँ
इस साल
यह अलग है
मैं बदलाव की चरम ताकत की लालसा कर रहा हूँ
मैं गवाह बनना चाहता हूँ
पृथ्वी के फटने का
लाखों तरीकों से धरती के हिलने का
मैं चाहता हूँ पुराना सब मर जाये
क्रांतियां परिणत कर दें
कविताओं को फूलों में रक्त सिक्त धूल से
इस साल
अब
मैं चाहता हूँ शांति का ही हिंसक जन्म हो
आंसुओं को गिरने दो
मृत्यु के मनमानी कर लेने के बाद
बसंत को दहाड़ने दो गरजती हुई नदी की तरह।
- लहब आसिफ अल जुंडी
( सीरियाई कवि )
अनुवाद - किरण अग्रवाल .
( आधारशिला विश्व कविता अंक से साभार )
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सरगम-
सरगम में आज प्रस्तुत है किशोर कुमार जी की आवाज़ में गुलज़ार साहब का लिखा ज़िन्दगी का ये खूबसूरत फलसफा, फ़िल्म है गोलमाल, और संगीत आर. डी बर्मन साहब का है।
_______________________________________________
हम जो सोचते हैं।
न रास्ता कहीं मुड़ता है
न सड़कें कहीं जाती हैं।
'हम'-
एक जयघोष है
जिसे हवा
घर से चौराहे तक
दिन भर भटकाती है।
हर नया दिन
एक समझौता है
जो हमें जोड़ता है
पर घंटे की हर चोट
कहीं न कहीं अलगाती है।
एक गति है
जो हमसे छूट कर
नगर की तमाम घड़ियों से परे
कहीं चलती चली जाती है।
हर जेब के भीतर
कुछ दबे हुए फूल हैं
और हर फूल के नीचे
एक सुलगती हुई भाषा
जिसे सूरज समझता है।
एक वाद्य है
जो देर-देर तक
हमारे नृत्य और लयों के बाद
कहीं सूने में बजता है।
समुद्र
वहाँ नहीं है
जहाँ दिन के सतरंगे घोड़े
उतरते हैं
वह हमारे आस पास,
हमारी छाती में,
हमारी हड्डियों के भीतर है
जहाँ रात के सन्नाटे में
हम सोचते-से रहते हैं।
सूर्योदय
चाहे एक
खाली गुलदस्ता हो
चाहे एक आघातहीन
ताज़ा समाचार
पर बेशक हर बार
वह एक हल्का सा उत्तर है
हम चुप हों
पर वह चुप्पी
बच्चे सुनते हैं
और यों
हमारा हर शब्द
किसी नए ग्रहलोक में
एक जन्मान्तर है।
- केदारनाथ सिंह .
___________________________________________
एक दृष्टिकोण
सूरज को सारे खून माफ़ हैं।
दुनिया के हर इंसान का
वह रोज़ एक दिन कतल करता है
और हर एक उम्र का एक टुकड़ा
रोज़ जिबह होता है
इंसान के इख्तियार में सिर्फ इतना है -
कि जिबह हुए टुकड़े को
वह घबरा के फेंक दे, और डरे,
या निडर उसे कबाब की तरह भूने, खाये
और साँसों की शराब पीता
वह अगले टुकड़े का इंतज़ार करे …
- अमृता प्रीतम .
_____________________________________________
हमारे मेहमान -
पुराना दिन
तुम वहाँ कैसे हो गुज़रे हुए दिन और साल ?
यह पूछते हुए पुरानी एल्बम के भुरभुरे पन्ने नहीं पलट रहा हूँ
तुम्हारी आवाज़ आज के नए घर में गूंजती है
और हमारी आज की भाषा को बदल देती है
एक समकालीन वाक्य उतना भी तो समकालीन नहीं है
वह पुरानी लय का विस्तार है
और इतिहास की शिराओं का हमारी ओर खुलता घाव
वह तुम्हारे विचारों का निष्कर्ष है हमारी आज की मौलिकता
पुराने आंसुओं का नमक आज की हंसी का सौंदर्य
मरा नहीं है वह कोई भी पुराना दिन
राख, धूल और कुहासे के नीचे वह प्रतीक्षा की धड़कन है
गवाही के दिन वह उठ खड़ा होगा
और खिलाफ गवाही के दस्तावेज़ के नीचे दस्तखत करेगा।
- महेश वर्मा .
________________________________________________
सुबह-सुबह उठ जाऊंगी
कल सुबह मैं
अवश्य सुबह-सुबह
उठ जाऊंगी
नहीं, पड़ी नहीं रहूंगी
औंधी बिस्तर में
यह कह कि मुझको
उठकर ही क्या
करना है
कल सुबह मैं
अवश्य सुबह-सुबह
उठ जाऊंगी और
बाहर जा कर
दोनों बाहों को
एक बड़े द्वार सा
खुलने दूँगी
ताकि सूरज
भीतर आये
तब मैं उस आ गयी धूप को
आसन दे कर
बहुत देर तक
माथे पर उसकी
गर्म हथेली रख लूंगी
कल सुबह मैं
सुबह-सुबह
खड़ी रहूंगी पार्क की
रेलिंग पकडे
देखूंगी उस कबाड़
बटोर रहे बूढ़े को
जो हमारी फेंकी
इतनी बड़ी कूड़े की ढेरी में
ढूंढ रहा होगा
चिथड़े जो गुदड़ी बन जाएं,
पुराने प्लास्टिक की थैलियां
जो गल कर चप्पल बन जाएं
नहीं, मैं उसे यह सब करते देख
अन्य दिनों की तरह
घिनाऊंगी नहीं
क्योंकि तब तक धूप
बीन चुकी होगी
मुझमें से वह सब
जो रह जायेगा कहीं
बाद मेरे भी
मैं कल सुबह
अवश्य सुबह-सुबह
उठ जाऊंगी।
- सुनीता जैन .
_____________________________________________
हमारे मेहमान -
पुराना दिन
तुम वहाँ कैसे हो गुज़रे हुए दिन और साल ?
यह पूछते हुए पुरानी एल्बम के भुरभुरे पन्ने नहीं पलट रहा हूँ
तुम्हारी आवाज़ आज के नए घर में गूंजती है
और हमारी आज की भाषा को बदल देती है
एक समकालीन वाक्य उतना भी तो समकालीन नहीं है
वह पुरानी लय का विस्तार है
और इतिहास की शिराओं का हमारी ओर खुलता घाव
वह तुम्हारे विचारों का निष्कर्ष है हमारी आज की मौलिकता
पुराने आंसुओं का नमक आज की हंसी का सौंदर्य
मरा नहीं है वह कोई भी पुराना दिन
राख, धूल और कुहासे के नीचे वह प्रतीक्षा की धड़कन है
गवाही के दिन वह उठ खड़ा होगा
और खिलाफ गवाही के दस्तावेज़ के नीचे दस्तखत करेगा।
- महेश वर्मा .
________________________________________________
सुबह-सुबह उठ जाऊंगी
कल सुबह मैं
अवश्य सुबह-सुबह
उठ जाऊंगी
नहीं, पड़ी नहीं रहूंगी
औंधी बिस्तर में
यह कह कि मुझको
उठकर ही क्या
करना है
कल सुबह मैं
अवश्य सुबह-सुबह
उठ जाऊंगी और
बाहर जा कर
दोनों बाहों को
एक बड़े द्वार सा
खुलने दूँगी
ताकि सूरज
भीतर आये
तब मैं उस आ गयी धूप को
आसन दे कर
बहुत देर तक
माथे पर उसकी
गर्म हथेली रख लूंगी
कल सुबह मैं
सुबह-सुबह
खड़ी रहूंगी पार्क की
रेलिंग पकडे
देखूंगी उस कबाड़
बटोर रहे बूढ़े को
जो हमारी फेंकी
इतनी बड़ी कूड़े की ढेरी में
ढूंढ रहा होगा
चिथड़े जो गुदड़ी बन जाएं,
पुराने प्लास्टिक की थैलियां
जो गल कर चप्पल बन जाएं
नहीं, मैं उसे यह सब करते देख
अन्य दिनों की तरह
घिनाऊंगी नहीं
क्योंकि तब तक धूप
बीन चुकी होगी
मुझमें से वह सब
जो रह जायेगा कहीं
बाद मेरे भी
मैं कल सुबह
अवश्य सुबह-सुबह
उठ जाऊंगी।
- सुनीता जैन .
_____________________________________________
नया दिन !
हर दिन
एक सा होता है...
वही दोहराव देख
मन कितना रोता है...
वैसे ही
चलता जाता है क्रम...
बढ़ते ही जाते हैं
अन्यान्य भ्रम...
कितनी तो
विवश हैं राहें...
कोई नहीं थामता
किसी की बाहें...
ज़िन्दगी हर दिन
ढलती शाम हो जाती है...
गम की आंधियां
बहुत सताती हैं...
प्रेम कहीं कोहरे में
ओझल होता है...
मैं तुम के द्वन्द में
मन बोझल होता है...
बादल
नए गगन की तलाश में
नयी राह पकड़ते हैं...
अजीब स्थिति है,
एक दूसरे के पूरक होकर
मन-मस्तिष्क आपस में खूब झगड़ते हैं...
ये सब
दिन भर
चलता रहता है...
पर ये भी सच है
हर रात के बाद
एक नया दिन निकलता है...
नए दिन की देहरी पर
नए विश्वास के साथ
चरण धरना है...
आसमान के
सूरज का स्वागत
धरा के अनगिन सूर्यों को करना है...
अपना तेज़
पहचान कर...
अपनी क्षमताओं को
जान कर...
जब हम
सूरज सम
लोककल्यान की खातिर जलेंगे...
तब देखना
नए दिन की आँखों में
सुनहरे स्वप्न पलेंगे...
"सर्वे भवन्तु सुखिनः"
वाली प्रार्थना
फलित हो जायेगी...
सुन्दर है कितनी ये धरा
हम सबके पूण्य प्रताप से
और ललित हो जायेगी...!
- अनुपमा पाठक .
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नया दिन …
रोज़ एक नए दिन का पार्सल दरवाज़े पर छोड़ जाता है वो
रोज़ नया, अज्ञात, मोहक एक उपहार।
रज़ाई में लिपटी
पिछले कल का कोर अपने पैरों तले और दबाती हूँ
सुस्ताते हुए, कुछ जान बूझ कर
मैं अनदेखा करती हूँ, टालती हूँ
नया दिन अपरिचित, अंजाना, भय मिश्रित कौतूहल सा …
उठूँ, न उठूँ? यह चारा है क्या?
परदे से छनती हुई किरणें, बच्चों का चहचहाना, गाड़ियों का शोर-
नये दिन का आह्वान तो हो ही गया
अब मैं इसका हिस्सा बनूँ, न बनूँ, बस इतनी सी मेरी डोर है
चलो, फिर पिछले कल को समेट कर रख ही दें ताख पर
उतरें आज की सीढ़ियां,
दरवाज़े पर पड़ा पार्सल खोलें …
शायद कुछ अनमोल, कुछ अनूठा और अपना हो
बचपन की किसी परी कथा सा रोचक
रोमांचक किसी सफ़र की तरह
नया दिन है, कुछ उदयमान तो हो ही सकता है
कोई आसरा तो दे ही सकता है
गुज़र जायेगा तो फिर समेटते रहोगी ,
उसका कोना अपने पैरों तले दबाओगी
तो क्यूँ न आज उसे गले लगा लो,
मिल तो लो उस के हर पल से …
कौन जाने क्या छिपा है इस दिन में?
- अनुराधा ठाकुर .
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दिन का दिन
बंद माचिस की डिबिया में
कई जलते दिन रखे है
सूरज में आग लगा
बुझ जाती है बारूद वाली तीली
बूढ़ा सर पर बोझ लिए
जलाता है अपना दिन...
दिन साँसे फूकता रहे
इसलिए फूँक लेता है
दो चार कश
और उड़ते धुए में दिन की तलाश करता है।
औरत जो जलते चूल्हे
में दिन डाल देती है
तवे पर सेक कर
अरमानो को किसी
कोने में छिपा देती है
थाली में वही सिका
हुआ दिन खट्टी चटनी से परोसती है ..
देखा है उसे नन्हे से बच्चे को
जो दिन पर लोट कर उसकी
आलस भरी अंगड़ाई तोड़ता है
नदी के उस पार गेंद की तरह फेंक देता है दिन
आकाश में ठहरा सूरज
थक जाता है तन्हा
खुद में विस्फोटक भर
पानी में छपाक से कूद जाता है
फिर एक नये दिन के आगाज़ में….
- नीलम समनानी चावला .
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दिन
वही पुराना सूरज,
रोज़ आसमान के
ठीक उसी कोने से,
ऐन उसी वक़्त पर,
आँख मलता उगता है।
पास के दरख्तों के
पहचाने झुरमुट से
फूटता है चिड़ियों का
वह सुना-सुना कलरव …
दूर सड़क पर कहीं
दौड़ते शहर का
इक बदस्तूर शोर
जैसे बहती हो नदी कोई।
चाय के पहले कप की
ताज़ी गर्माहट में ,
और अखबार की बासी कड़वाहट में ,
तकरीबन
रोज़
उसी ढर्रे पर चलती है
धूल खाये लम्हों की
लम्बी फेहरिस्त जैसी
ज़िन्दगी।
ज़र्द चेहरा, पीले से …
एक सीधी रेखा में
खड़े हैं हज़ारों दिन,
धुवाँ-धुवाँ,
सीले से।
कुछ मगर
किनारे से
कुरकुरे-करारे से,
धूप में नहाये हुए,
चमचमाते, चटखे से,
इधर-उधर अटके से
दिन, जो बीच-बीच में
ताक-झाँक जाते हैं …
वो
फ़क़त वही दिन हैं
जो तुम्हारी आँखों की
रौशनी में उगते हैं …
जो तुम्हारे होठों की
धुन पे मुस्कुराते हैं।
- मीता .
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अनुवाद -
एक और दिन आएगा
एक और दिन आएगा , एक स्त्रियोचित दिन
अपनी उपमा में स्पष्ट, अस्तित्व में सम्पूर्ण
हीरा परख में , शोभायात्रा जैसा
धूपदार, लचीला, एक हलकी परछाईं के साथ।
किसी को भी नहीं आयेगी छोड़ कर जाने की इच्छा।
सारी चीज़ें अतीत से बाहर की ,
प्राकृतिक और वास्तविक
अपने पुराने लक्षणों की पर्यायवाची होंगी।
जैसे कि समय गहरी नींद सोया हो छुट्टी में …
एक और दिन आएगा , एक स्त्रियोचित दिन
भंगिमा में गीत जैसा
अभिवादन और वाक्यांश में नीलम।
पानी बहेगा चट्टान के सीने से।
न धूल , न अकाल , न पराजय।
और अगर फाख्ते को प्रेमियों के बिस्तर पर नहीं मिला एक छोटा सा घोंसला
तो वह दोपहर को सोयेगा
एक परित्यक्त कॉम्बैट टैंक के भीतर …
- महमूद दरवेश .
( फलीस्तीनी कवि )
अनुवाद - अशोक पांडे .
( सदानीरा से साभार )
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आशावाद
हम सुन्दर दिन देखेंगे, बच्चो
उजली धूप वाले दिन …
हम अपनी द्रुतगामी नावों को खुले समुद्र में ले जायेंगे, बच्चो
हम उन्हें दौड़ाएंगे चमकीले, नीले विस्तृत सागर में …
कल्पना करो पूरी गति से जाने की
वह मोटर का घूमना !
वह मोटर का गुर्राना !
आह ! बच्चो कौन बता सकता है
कितना अद्भुत होता है
सौ मील की गति को चूम सकना !
आज के दिन की सच्चाई है
हम रोशनी से नहाई सड़कों पर
सजी दूकानों को निहारते हैं
जैसे कोई परीकथा सुन रहे हों
ये कांच की दीवारों वाली
सतहत्तर मंज़िला दुकानें।
सच्चाई यह है
जब हम चिल्ला कर जवाब मांगते हैं
हमारे लिए काली किताब खुल जाती है !
चमड़े की पेटियों से हमारे हाथ बांध दिए जाते हैं !
यह सच है हमारे खाने की मेज़ पर
हफ्ते में एक दिन गोश्त तो है
मगर हमारे बच्चे काम से घर लौटते हैं
विवर्ण कंकालों की तरह …
यह आज की सचाई है
लेकिन मुझ पर यकीन करो
हम अच्छे दिन देखेंगे बच्चो
देखेंगे उजली धूप वाले दिन
अपनी द्रुतगामी नौकाओं को दौड़ाएंगे खुले समुद्र में
हम उन्हें दौड़ाएंगे विस्तृत, चमकीले नीले सागर में।
- नाज़िम हिकमत .
( तुर्की कवि )
अनुवाद - शेखर जोशी
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आज, आने वाले कल का बीता हुआ कल है।
आज -
अतीत का भविष्य है।
आज -
भविष्य का अतीत भी है।
आज
बीता हुआ कल था
आने वाले कल का।
भविष्य का आज
अतीत का आने वाला कल होगा।
अतीत का अतीत क्या है ?
वर्तमान का वर्तमान क्या है ?
क्या है भविष्य का भविष्य ?
अतीत से बना है वर्तमान।
वर्तमान बना रहा है भविष्य।
इस क्षण का आज
आने वाले कल में गुज़रा हुआ कल होगा।
किन्तु अपरिचित है आने वाला कल।
अतीत की परछाईं वर्तमान है।
अतीत को वर्तमान की छाया छूती है।
किन्तु अपरिचित रहेगा आने वाला कल।
- रोंमेल मार्क डोमिनिगुएज मार्शन .
अनुवाद - मीता पंत
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इस साल
अब
मैं कितना इंतज़ार कर रहा हूँ बसंत का
नहीं
हमेशा की तरह नहीं
मैं ठण्ड से थक गया हूँ और सूरज की कामना करता हूँ
इस साल
यह अलग है
मैं बदलाव की चरम ताकत की लालसा कर रहा हूँ
मैं गवाह बनना चाहता हूँ
पृथ्वी के फटने का
लाखों तरीकों से धरती के हिलने का
मैं चाहता हूँ पुराना सब मर जाये
क्रांतियां परिणत कर दें
कविताओं को फूलों में रक्त सिक्त धूल से
इस साल
अब
मैं चाहता हूँ शांति का ही हिंसक जन्म हो
आंसुओं को गिरने दो
मृत्यु के मनमानी कर लेने के बाद
बसंत को दहाड़ने दो गरजती हुई नदी की तरह।
- लहब आसिफ अल जुंडी
( सीरियाई कवि )
अनुवाद - किरण अग्रवाल .
( आधारशिला विश्व कविता अंक से साभार )
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सरगम-
सरगम में आज प्रस्तुत है किशोर कुमार जी की आवाज़ में गुलज़ार साहब का लिखा ज़िन्दगी का ये खूबसूरत फलसफा, फ़िल्म है गोलमाल, और संगीत आर. डी बर्मन साहब का है।
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3 टिप्पणियां:
Meeta ji,
So well compiled!!!
Regards,
Anupama
उम्दा प्रस्तुति .. बहुत सरे लेखको की रचना एक प्लेटफार्म पर पढना सुखद .. आपका कार्य सराहनीय है बधाई सभी लेखको को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये :)
Meeta... ye kitna khoobsurat hai.. sab kuchh hi... bahut aabhaar mera is duniya se parichay karvane ka... iska hisaa banna bahut achcha lag raha hai mujhe. kitni sundar rachnayen.. gurujano ko naman aur naye rahnakaro ko badhayi!
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