सोमवार, 30 दिसंबर 2013

नया दिन




रोज़ एक नए दिन का पार्सल दरवाज़े पर छोड़ जाता है वो
रोज़ नया, अज्ञात , मोहक सा एक उपहार।

रज़ाई में लिपटी
पिछले कल का कोर अपने पैरों तले और दबाती हूँ
सुस्ताते हुए, कुछ जान बूझ कर
मैं अनदेखा करती हूँ, टालती हूँ
नया दिन अपरिचित, अंजाना, भय मिश्रित कौतूहल सा …

उठूँ, न उठूँ? यह चारा है क्या?
परदे से छनती हुई किरणें, बच्चों का चहचहाना, गाड़ियों का शोर-
नये दिन का आह्वान तो हो ही गया
अब मैं इसका हिस्सा बनूँ, न बनूँ, बस इतनी सी मेरी डोर है
चलो, फिर पिछले कल को समेट कर रख ही दें ताख पर
उतरें आज की सीढ़ियां,
दरवाज़े पर पड़ा पार्सल खोलें  …

शायद कुछ अनमोल, कुछ अनूठा और अपना हो
बचपन की किसी परी कथा सा रोचक
रोमांचक किसी सफ़र की तरह
नया दिन है, कुछ उदयमान तो हो ही सकता है
कोई आसरा तो दे ही सकता है

गुज़र जायेगा तो फिर समेटते रहोगी ,
उसका कोना अपने पैरों तले दबाओगी
तो क्यूँ न आज उसे गले लगा लो,
मिल तो लो उस के हर पल से …

कौन जाने क्या छिपा है इस दिन में?

- अनुराधा ठाकुर  . 

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