रविवार, 20 नवंबर 2011

तब तो क़दमों की आहट होगी ; तब तो कोई आएगा


उम्मीद अभी भी बैठी है दहलीज़ पर 
कि कोई लौट आयेगा ,
पहले होगी क़दमों की आहट ,
फिर दरवाजा खट- खटायेगा .
कैसे उसे ये कोई अब समझाएगा 
जो बीत गया है वो 
लौट के अब न आयेगा .


उम्मीद कई दलीलें देगी ,
जिरह करेगी जज्बातों से ;
अब उस से भला कोई 
कैसे जीत पायेगा ...
क्या उसको बतलायेगा 
कैसे उसको समझाएगा 
न क़दमों की आहट होगी 
न ही कोई आएगा 

कतरा कतरा रिस रहा है 
उम्मीद का गहरी रातों में ,
कमली सी वो  हो गयी है 
उलझी उलझी जज्बातों में ,
कहती है 
जब टूटेंगी सांसें 
और 
अर्थी कोई उठाएगा 
तब तो 
क़दमों की आहट होगी 
तब तो कोई आएगा .

2 टिप्‍पणियां:

meeta ने कहा…

तुम्हारी कविता में उदासी शायद पहली मर्तबा पढ़ रही हूँ . मगर खूबसूरत है .

Na ने कहा…

skand you write so well on every topic.
जो बीत गया है वो
लौट के अब न आयेगा
fir bhi hamein intezaar karney se koi rok thodi sakta hai beautiful

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