सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

आयो ऋतुराज वसंत ...



वसंत अब शहर में नहीं आता , घर के आँगन में नहीं आता , दो दिलों में नहीं आता .... जिस कंक्रीट के जंगल में हम रहते हैं , वहां वसंत के आने के सारे दरवाज़े बंद हैं .... लेकिन वसंत आया तो होगा , अभी भी ... खेतों में , जंगलों में कहीं , तो चलें उसे बुला लायें , क्योंकि स्वागत तो करना है वसंत का .... और फिर वसंत का आना सिर्फ एक मौसम भर बदलने की बात नहीं है ..... ये तो प्रतीक है जीवन में एक नयी उमंग का , एक नए उत्साह का ...
                 पुराने कवियों की कविताओं में वसंत को अनेक रूपों में देखा पढ़ा है हम ने .... जिन में प्रकृति का वसंत होता था , प्रेमी प्रेमिकाओं का वसंत होता था , यहाँ तक कि वीरों का भी वसंत होता था .... एक टिटहरी प्रयास है कि वसंत न केवल उस रूप में , वरन और भी अनेक रंग बदल कर अपने पूर्ण सौंदर्य और शालीनता के साथ आप के घर , आप के मन तक आये इन कविताओं में ...
            आइये मिल कर कहते हैं , स्वागत है वसंत तुम्हारा ..!
                                   
                                          - पुष्पेन्द्र वीर साहिल .
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इन दिनों .                                

मनचीता ताप है
इन धूपीले दिनों में
जिसे चाहने पर ओढना है
अनिच्छा होने पर मुख मोड़ लेना ...

भोर में खिले मयंक को देखा अदेखा किया जाता है जैसे .

जनवरी विदा हो कर , फ़रवरी को सौंप गयी
लम्बे पहरों की बागडोर
अलसुबह ही नींद में पंख फडफडा कर
साँझ तक पाँव पसारे
यहाँ वहां से अलस कर सिमटता है
उजाला अब

कैकटस पर नूर है
मिर्च के पौधे में नन्हे सफ़ेद फूल से
चमक-दमक

मैना सर्दियों की खुमारी में
इन दिनों भी टपकते नल के पास
चहलकदमी करती , भोजन तलाशती है
उसकी आँखों के गिर्द पीला काजल
लुभावना

हवा में गुड पकने की गंध है
खजूर का गुड
गले में खराश जगाता
दूर से ही

तन , आधी धूप , आधी छांह में सुस्ताता
मन , दामोदर किनारे मद्धम चाल से उसकी
मछलियों से बतियाता ,
पानी में हाथ डाल उन्हें सहलाता
सुनता विलंबित ख्याल कोई

इस नदी की रेत पर सुगमता से चलना दूर तक
गंगा की महीन बालू जैसे पैर उलझते नहीं
यहां मेरे

मनचीती धूप में देखना ....

वसंत अपनी ही छाया पर
नीम की पीली पत्तियों सा
बिखरता - डोलता , विचरता रहता है
हवा के रुख पर
इन दिनों .

                   - पारुल पुखराज.
                     
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वसंत .                              

१ .

देखो तो
इस बासंती बयार को
एक डाकिये की तरह
अनुराग के ख़त
बाँट रही है
और
विरही भावनाओं की
दुआओं की रेज़गारी
बटोर रही है .

२ .

जब
प्रतीक्षा की वासंती धूप
बहुत तीखी हो कर
तपने लगी ,
तो मैंने तुम्हारी सुधियों का
छाता तान लिया .

                    - दिनेश द्विवेदी .

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बसंत...तब..और..अब



याद है दूर से आती बांसुरी की 'विरही' सी धुन
'मांदल' की थाप में थिरक दुनिया भुलाने का गुन
आम्रकुंज में बौरा सी जाती थी काली सुरीली कोयल
जब 'सुमति' के जूड़े में खोसे फूल से 'बसंत' उतरता था
........................तब यक़ीनन वो जंगल से गुजरता था .


उस छोटी बस्ती से निकल इक टूटी पुलिया में बैठना
चाँद तले कभी हाथों में हाथ लिए बंजारों सा भटकना
बसंती बयार की छुवन, प्रकृति का स्पंदन महसूसना
'ऋतुराज' का आदिम तीर मन से देह में उतरता था
.............. यक़ीनन बसंत जंगल से गुजरता था


और अब.......


बसंत तो अब भी वहीँ है.... वायदे से मजबूर
बस ठिठक जाता है ........बेलिबास पेड़ों के बीच
जब टेसू सी दहकती आग ........आँखों में लिए
'हथियारों' से लैस एक 'दस्ता' जंगल से निकलता है ,
बसंत बस निकल जाता है .....
                     जंगलों से नहीं गुजरता है

                                           - रश्मि प्रिया .

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ये बसंत का मौसम ...

                    


      बूटा बूटा जवाँ जवाँ गुन्चो गुल मुस्काया है,
      ये बसंत का मौसम अपने जीवन का सरमाया है।


जंगल जंगल तरसे तरसे आलम था बेहाली का,
सबको सामाने तसकीं खुद सूरज लेकर आया है।


मेरे दिल की सूनी धरती बिलख रही थी सदियों से,
वादी ए दिल ने अब जाकर खुला ख़ज़ाना पाया है।


भौंरा भौंरा निकल पड़ा है फिर कलियों की चाहत में,
फिर दीवानों पर मस्ती का समां नशीला छाया है।


हम जैसे ग़मगीन ग़रीबों की सुन ली है मालिक ने,
रंगो बू के मौसम ने हर ग़म को दूर भगाया है।

                                                       - इमरान .


गुन्चो गुल: पत्ते और फूल
सरमाया : संपत्ति
सामाने तसकीं : संतुष्टि का सामान
रंगो बू : रंग और खुशबू
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अब वसंत आ जाने दो ... 

            


ये जीवन पतझड़ का मौसम
                 अब वसंत आ जाने दो .
प्रियतम तेरे नेह-घटक बिन
अँखियाँ अश्रु की पनिहारिन
बिन तेरे आँचल में सिमटी
क्वांरी पीड़ा बनी अभागिन
चूनर कुम-कुम हो जाने दो,
उम्र सुहागिन हो जाने दो
ये जीवन पतझड़ का मौसम
               अब वसंत आ जाने दो .
विरह-निशा आँखों में बीती
आशा की मदिरा भी रीती
तुमको सौ-सौ बार पुकारा
फिर भी सूनी मन की वीथी
अधर-अधर से मिल जाने दो,
प्रेम-सुमन खिल जाने दो
ये जीवन पतझड़ का मौसम
                   अब वसंत आ जाने दो .

                          
                                 - पुष्पेन्द्र वीर साहिल .

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फिर कैसे आये वसंत ?



अम्मा उठी सुबह सूरज निकलने से पहले
और घर को सर पर उठा लिया
कितनी देर तक सोती है "असंस्कारी"
ये कह "तुच्छ" बहू को जाता दिया
बोली बहू से अम्मा सरस्वती पूजन है आज
सास सफाई कर रही है , तुझे आती नहीं है लाज
चल उठ गरम कर पानी मुझ को अभी नहाना है
इस से पहले सूरज निकले "तुलसी माँ "को पानी चढ़ना है
बोली बहू ऑंखें मलते - माँजी थोडा जी मित्लाता है
सुबह जल्दी उठती हूँ तो चक्कर सा आता है
सोचा कर बोली अम्माजी, चलो "लड़ो" फिर तुम सो जाओ
धयान रहे कि डाक्टर से जल्दी "जांच" तुम अपनी करवाओ

पूजा पाठ ज्यों निपटी त्यौं अम्माजी गयी डाक्टर के पास
लड़का जने बहू ये मेरी मन में यही थी आस
नोट हरे जो चढ़े चढ़ाव डाक्टर थोडा सा मुस्काया
बहुत सुदर है आपकी "पोती" , अम्माजी को बतलाया
अम्माजी कि त्योरियां चढ़ गयीं , लिया चिंता ने घेर
बोली डाक्टर कोई जतन करो जो दूर हो "अंधेर"
डाक्टर बोला अम्माजी ये है थोडा मुश्किल काम
कोशिश मैं कर सकता हूँ मिले जो वाजिब दाम
एक बार अपनी बहू से भी आप पूछ ले थोडा
अगर वो मुकर गयी तो अटक सकता है रोड़ा
बोली अम्माजी उस ने जब मेरे नाक कटाई है
अब उसके इस जुर्म की कोई नहीं सुनवाई है

बहू सिसकती रह गयी धुल गये उसके पाप
सुबह उठी थी जो उम्मीद शाम हुई तो साफ़
घर आकर अम्माजी ने फिर पंडित को बुलवाया
बड़े जतन से उन्होंने "सरस्वती" पूजन करवाया
मंदिर में जाकर बोली " माँ, है तूने ही बचाया
जाने किस का श्राप बहू की कोख में आया
अब तू बेटा ही देना, मैं तेरी जोत जलाऊंगी
नवरातों को, नौ कन्या को, पञ्च भोग कराऊंगी"

सिमट गयी थी बहू खुद में , खो कर नन्ही सी जान
उस अजन्मे रिश्ते के कहीं ऋणी थे उसके प्राण
सोच रही थी की कैसे होगा इस चलन का अंत
जन्मे जो बेटी कोई तो फिर कैसे आये वसंत

                                    - स्कन्द .

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वसंत कहाँ रुकता है .

                                                            
ठण्ड से अधमरी  
पत्तियों को
जीवन की धूप दिखा कर
तुम प्राण वायु फूंकते हो
इस तरह
बुझते दिए की लौ सा
एक बार
तेज जला कर
बसंत
तुम भी कहाँ रुकते हो

हाँ, एक बात सिखा जाते हो
हर चीज आनी जानी है
सब में
मौसम सी ही रवानी है


मेरी मानो
मै भी बसंत की तरह हूँ
जब तक मन में रहूँगा
मुस्काऊँगा
एक मुस्कुराहट
तुम्हारे होंठो पर सजा कर
और
कई मधुर यादों की
पोटली थमा कर
मै भी चला जाऊंगा .

               - रश्मि प्रिया .
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बसंत फिर आयेगा                        



हाँ , बसंत आया था
अपने पीले लिबास में
मुझे धीमे से थमाने
छोटा सा पीला रुमाल
जो माँ ने सिया था
सफ़ेद कपडे को
हल्दी से रंग के
देवताओं के सिंहासन
पे शोभित पीताम्बर
और चूल्हे से उठती
मीठे चावल की खुशबू
जब डब्बे के रेजगारी की
आवाज मंद हो चली थी
और दिल में स्नेह
बाहर छलक चला था
ऋतुराज का उल्लास
चेहरे पे दमका था
गोद में उठा मुझे
सरस्वती वंदना गाई थी
और दिल की  व्यथा
आशा में डुबाई थी




अब वसंत का रंग
कुछ मैला सा हो गया है
पीले सोने की चमक से
धूमिल सा हो गया है
मिलावट के बाज़ार से
खशबू उड़ गयी है
सरस्वती भी अब
सुप्त सी हो गयी है
पर अब मुझे खुद ही
बसंत को बुलाना होगा
अपने बच्चों को उसका
जादू दिखाना होगा
वस्त्र आभूषण से परे
छोटी बातों में ख़ुशी
समेटने का वो कौशल
फिर से सिखाना होगा
तभी फिर वसंत आयेगा
और हमें फिर से
रंग और खुशबू से
सराबोर कर जायेगा


- साधना .


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लौट आना वसंत ...
                                                                              


तुम रुकोगे नहीं .
चले जाओगे
अपनी खुशबू ,
अपने तमाम रंग
समेट कर .


आहिस्ता आहिस्ता
धूप कड़ी होने लगेगी
झुलसाने लगेगी मन- प्राण ;
तब कहीं जा कर
बारिशें होंगी .


फिर धीरे-धीरे
पतझर
इक रोज़
सिहरती ठण्ड में तब्दील हो जाएगा .


और ...
एक गहरी उदास नींद
सो जाएगी धरा .


सांसें धीरे-धीरे खर्चती ,
दर्द-दर्द जीती ,
कराहती ...
तुम्हारे जादुई स्पर्श के लिए .


तब
एक स्वप्न की तरह
तुम लौट आना वसंत ...
धरा के पास !!
भर देना उजास ...
धरा को
रहने न देना
देर तक उदास !!


- मीता .

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हमारे वसंत के इस अंक में , इस मीठे गीत के साथ आइये महसूस करते हैं धरती के अनूठे सौंदर्य को -



<

10 टिप्‍पणियां:

Reena Pant ने कहा…

कुनकुनी धूप ने याद दिलाया
लो, शायद वसंत फिर आया .
पेड़ो की नई कोपले,
सरसों की पीली चदरिया,
आम के बौर,
वासंती बयार ,
कोयल के गीत,
हुई पुरानी रीत
मन ने फिर भी गीत गया
लो, शायद फिर वसंत आया ........
शाम की रंगीनियों में,
थिरकते कदमों के साथ ,
हाथ में गिलास थामे ,
बहुत से 'डे' मनाते,
आता किसे है याद ,
कि वसंत आया.........
भाभी की देवरों के साथ,
वो प्यारी सी छेड़-छाड़,
आंखों में मदहोशियाँ ,
यौवन की वो बहार,
गले में बांधे,
पीले पीले रुमाल,
होली के मधुर गीत,
हुई पुरानी रीत ,
मन ने फिर भी गीत गाया,
लो ,शायद वसंत आया........
अचानक एस. एम् एस.के साथ
'चिरंतन' का अंक आया
किसी ने याद दिलाया
लो, शायद वसंत आया ........

बेनामी ने कहा…

shandaar.....
Kya basant itna sundar hota hai...!

Unknown ने कहा…

बहुत सुंदर...... सभी का योगदान सराहनीये है
........ अभिनन्दन बसंत अभिनन्दन .............


दूर सदूर बंजर पहाड़ो पे
गिरी जब बसंती पहली धूप
गुदगुदाती सी धरा ली झूम
सूरज आज तीखा तेज नहीं है
नरम है धरा की गोद में
पड़ा बिज थोडा गरम है
अंगड़ाई ले के निकल आया जो
हरयाली को होले से बुलाया जो
बयार बसंत भी रुक न पाई
झूले सावन ने ली अंगड़ाई
देखो कोम्पले फूटने लगी है
धरा की हथेलियों पे खिलने लगी है
ले के रंगों की फुहार
जैसे गेसुओं में भीनी भीनी
खुशबुओं की बोछार
अब धरा रुक नहीं पाती
पते पते में सूरज की जगी है बाती
खिले है गुल हज़ार
लो आज आ गया
झूमता बसंत बहार ...
अठखेलियाँ अब न थमेगी
सहेलियां बाग में झुला पगेंगी ..
मुस्कराहटों का गरम है बाज़ार
आ जाओ धरा बुलाती है
मंद मंद सूरज के संग
बयार झूल जाती है
छोड़ो सब सारे अवसाद
फेंक दो पुराने रंज जो लिए थे उधार
गले लगा लो
देखो फैले है
कितने रंग हज़ार
हाँ आ गया है
आज बसंत मेरे यार ..बसंत मेरे यार ......बसंत मेरे यार ...................

विनय ...२१/०२/१२ ....७:२० साँझ.

Leena Alag ने कहा…

A very assorted issue...hope,despair,frustration...my foremost mention would most definitely be Dinesh Dwivedi ji whose concise lucidity everytime leaves one wondering how irrevelant words can be and so much can be said with such few...its indeed an honour Sir to have you as an esteemed member of this blog...Parul ji's magnified imagery of the tiniest of nature's beauties that one misses in a glance is soooo beautiful...Rashmi ji and Skand ji's words draw attention to present alarming issues like terrorism and female infanticide...though they leave one with a very heavy heart...Pushpendra ji,Sadhana ji...the endless wait of "Basant" in our lives and relationships...Imraan ji,forever beeming n brimming with smiles in the true spirit of the season... :) ...Meeta and Rashmi ji again talking of constant change n life coming a full circle...I would just like to add here that my vision of this season in particular is a looooot more joy,colour,vibrance,freedom,lifting of the fog and in return leaving behind clarity and clairvoyance..."SPRING" the name itself entails springing back to life... :) ..."Spring" for me is...re-generation not hibernation...fertility not futility...bloom not gloom...life 'is' not life 'was'... :) ...I guess the lines that follow are just what this season of life is all about:

"THE YEAR'S AT THE SPRING"

The year's at the spring
And day's at the morn;
Morning's at seven;
The hill side's dew-pearled;
The lark's on the wing;
The snail's on the thorn;
God's in his Heaven-
All's right with the world!

-Robert Browning

:) :) :)

meeta ने कहा…

@Reena Pant - Reena di your comment is so beautiful and so meaningful in today's context . Thanks a lot .

@Vinay Mehta - Vinay ji this is a beautiful piece you have written ... it is so full of hope . Lovely !! Thank you .

meeta ने कहा…

@Leena Alag - Leena , you are absolutely right . We needed a little more zeal and energy to welcome spring . But whatever was missing ....is right there in the beautiful comments . Thanks for quoting Robert Browning , the poet of "robust optimism " for spring does signify new hope and energy . Thanks !!

meeta ने कहा…

@Anonymous - We are so glad that you liked our effort . We would have been even happier to know who our dear friend is . Kindly share your name with us along with your comment in future . Thank you :)

Rajshree rai ने कहा…

Samajh nahi aa raha ki kya likhoo......Basant ka mausm....oh! kitni yaaden judi hain isse!basant ka aagaz hote hi aisa lagta hai jaise jeevan apne purane wastron ko nikal kar naye wastra pahan rahi hai.Nange pairon sukhe patton ki chader par chalne ka o sukhad ahsaas...nahi bhool sakti bachpan ki ye yaad!Phir naye patton ke aane ki sarsarahat....holi ki o wasanti byar...kya kya likhoon......phir kabhi.....

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल ने कहा…

आपने बड़े खूबसूरत अंदाज़ में वसंत का जिक्र छेड़ा है राजश्री जी..

avanti singh ने कहा…

बहुत उम्दा रचनाएं है

आप को होली की खूब सारी शुभकामनाएं

नए ब्लॉग पर आप सादर आमंत्रित है

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